Book Title: Jain Darshan Sammat Atma ka Swarup Vivechan Author(s): M P Patairiya Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 2
________________ साथ श्वासउच्छ्वास को मिलाकर, प्राणों की दश जीव का स्वरूप संख्या हो जाती है। जीव का स्वरूप दो प्रकार का है-शुद्ध स्वरूप उक्त चार-प्राणों से युक्त 'जीव' है, यह कथन, और अशुद्ध स्वरूप । विभिन्न प्रकार के कर्मों के साथ व्यावहारिक दृष्टि से किया गया है। निश्चयदृष्टि जब तक जीव का सम्बन्ध है और जन्म-मरण-आदि से तो 'जीव' वह है जिसमें 'चेतना' पाई जाये। यह कर्मजन्य विभाव पर्यायों के रूप में उसका परिणमन. चेतना, तीनों कालों में निधि और अविच्छिन्न रूप जब तक हो रहा है, तब तक वह 'अशुद्ध स्वरूप' । से जीव में रहती है । इस आधार पर हम यह कह वाला रहता है। किन्तु, जब गुप्ति, समिति-आदि सकते हैं-इन्द्रिय-आदि दश प्रकार के प्राण पुद्गल रूप संवर-निर्जरा के द्वारा घातिकर्मों का क्षय करके द्रव्यमय हैं । अतः वे 'द्रव्य प्राण' हैं; और 'चेतना' अनन्तचतुष्टय से युक्त हो जाता है, तब वह विशुद्ध' भाव प्राण है । मुक्त-आत्माओं में दश प्रकार के द्रव्य स्वरूप वाला हो जाता है, और, बाकी बचे चार प्राण नहीं रहते। तथापि चेतना रूप भाव प्राणों अघाति कर्मों को भी जब नष्ट कर देता है, तब, का अस्तित्व उनमें रहता है । इसी आधार पर उन्हें आठ अनन्त गुणों वाला होकर 'परमात्मा' कहलाने भी जैन दार्शनिक 'जीव' संज्ञा का व्यवहार का हकदार हो जाता है। इसी अवस्था में उसे करते है। 'सिद्ध' कहा जाने लगता है।' जीव का लक्षण जीव का परिणमन जैन दृष्टि, जीव का लक्षण 'उपयोग' मानती यह जगत्, पर-परिणमनात्मक है । इसमें, है। उपयोग वह है, जो यथासम्भव 'बाह्य' और ज्ञानावरण-आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, 'आभ्यन्तर' दोनों प्रकार के हेतुओं का सन्निधान क्षयोपशम के अनुसार क्रोध, मान आदि रूप जो रहने पर, ज्ञाता के चैतन्य के अनुविधायी-परिणाम संख्यातीत मलिन भाव पैदा होते हैं, उन्हें 'वभाविक' रूप में प्राप्त होता है। उक्त दोनों हेतुओं को और 'स्वाभाविक' दो भागों में विभाजित किया 'आत्मभूत' और 'अनात्मभूत' दो-दो प्रकारों में गया है। अर्थात् जीव, संसारी-अवस्था में, अपनी विभाजित किया गया है। आत्मा से सम्बन्धित वैभाविक-शक्ति से कर्म निमित्त के अनुसार क्रोध, शरीर की चक्ष आदि इन्द्रियाँ 'आत्मभूत बाह्य हेतु' मान, माया-आदि विभाव रूपों में परिणमित होता Tal हैं, तथा दीपक आदि 'अनात्मभूत बाह्य हेतु' हैं। है; और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाने पर, अपनी शरीर, वाणी और मन की वर्गणाओं के निमित्त से उसी शक्ति से, मुक्त-अवस्था में भी वह केवलज्ञानआत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन पैदा करने वाले द्रव्य आदि स्वभावरूप में परिणमन करता है। इसी योग को 'अनात्मभूत आभ्यन्तर हेतू' कहा गया है। आधार पर जीव परिणमन के उक्त दो प्रकार किये जबकि, इसी द्रव्य योग के निमित्त से उत्पन्न ज्ञाना- गये हैं। वैभाविक, संक्षेपतः तीन प्रकार का हैदिरूप 'भावयोग' को तथा 'आत्मविशुद्धि' को औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक । कर्मों के ? 'आत्मभूत आभ्यन्तर हेतु' कहा गया है। उदय से प्राप्त गति'-आदि इक्कीस प्रकार का है उपयोग, दो प्रकार का है-ज्ञानोपयोग और औदयिकभाव । जबकि कर्मों के उपशम से उत्पन्न दर्शनोपयोग । दर्शनोपयोग निर्विकल्पक' तथा ज्ञानो- औपशमिक भाव 'उपशमसम्यक्त्व' एवं 'उपशमपयोग 'सविकल्पक' होता है। अतः व्यवहारदृष्टि चारित्र्य' नाम से दो प्रकार का है। कर्मों के से जीव का लक्षण करते समय कहा जायेगा-'ज्ञान क्षयोपशम से उत्पन्न क्षायोपशमिक भाव के अठारह और दर्शन उपयोग का जो धारक है, वह 'जीव' प्रकार होते हैं।11 है।' किन्तु, शुद्ध निश्चय दृष्टि से शुद्ध ज्ञान-दर्शन विभाव-कर्मों का उत्पादक-कर्म मुक्त-अवस्था में । को ही जीव का लक्षण माना जायेगा। विद्यमान नहीं रहता। इस कारण वहाँ विभाव१८६ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ORD Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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