Book Title: Jain Darshan Sammat Atma ka Swarup Vivechan Author(s): M P Patairiya Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 7
________________ Y. और विभिन्न प्रकार के विभाव भावों का धारण जाती है। सत्ता-स्वरूप को दृष्टि से तो जीव राशि करने से, नये-नये कर्मों से बंधता रहता है। इन्हीं में अनन्तता रहती ही है। कर्मों के कारण पूनः एक देह से दूसरा देह प्राप्त 'भव्य' और 'अभव्य' भेद से जीव के दो प्रकार करता रहता है। हैं । अभव्य जीव अनन्त हैं। इनसे भी अनन्तगुणा LORD प्रदेश प्रमाणता अधिक भव्य जीव हैं । अतः भव्य जीव भी अनन्त प्रत्येक समय में हो रही षड्गुण हानि वद्धि से हैं । अनादि कर्म सम्बन्ध के कारण, आत्मा अशुद्ध अनन्त-गुरुलघु गुणों की उत्पत्ति होती रहती है। ये भाव से परिणमन करता है। इससे वह 'सादिगुण, आत्मा के अगुरुलघुस्वभाव से अविनाभावी अन्त' और 'सादि-अनन्त' भी होता है। कीचड़ होते हैं और आत्मा की स्थिति के अतिसूक्ष्म कारण मिला जल अशुद्ध होता है। कीचड़ के 'सम्मिश्रण' बनते हैं। जितने भी जीव हैं, वे सभी, इन गुणों और 'अभाव' की स्थितियों के आधार पर उसे से परिणत होते हैं। कोई जीव ऐसा भी नहीं है. क्रमशः 'अशुद्ध' और 'शुद्ध'-जल कहा जाता है। जिसमें ये गुण न हों। सभी जीव लोक प्रमाण इसी प्रकार, आत्मा में भी कर्म सम्बन्ध की 'संयोग' असंख्येय प्रदेशी हैं। इनमें से कुछ जीव, किसी और 'विप्रयोग' स्थितियों के अनुसार 'सादिप्रकार, दण्ड कपाट आदि अवस्थाओं में घनाकार अन्तता' आर अन्तता' और 'सादि-अनन्तता' बन जातो है ।29 रूप समस्त लोक प्रमाणता को प्राप्त कर लेते हैं. इन पूर्वोक्त भाव परिणतियों वाला जीव, जब और समस्त जाति कर्मों के उदय से लोकप्रमाण मनुष्य आदि पर्याय को प्राप्त करता है, तब विस्तार को प्राप्त करते हैं। इसी कारण, समुद् उत्पाद-व्यय की अपेक्षा से उसमें 'विनाशात्मकता' घात की अपेक्षा से, कुछ जीवों को लोकप्रमाण आ जाती है। क्योंकि, मनुष्य-आदि पर्याय माना गया है । समुद्घात की अभाव दशा में जीवों 'विनाशी' हैं। और, चूकि देव-आदि पर्यायों को को असवलोक प्रमाण ही माना गया है। उसने प्राप्त नहीं किया है, इससे देव-आदि पर्यायें नित्यानित्यता उसके लिए 'उत्पाद' रूप बनी रहती है। इ कारण उसमें 'उत्पादकता' भी बनी रहती पूर्वलिखित लक्षणों से युक्त जीव को सहज शुद्ध है। इस उत्पाद-व्ययात्मकता अथवा विनाश-| चैतन्य पारिणामिक भावों से अनादि-अनन्तता होती उत्पादकता के कारण भी जीव में 'अनित्यता' है, और अपने स्वभाव से तीनों ही कालों में टङ्को- रहती है । तथापि वह, मनुष्य-देव आदि पर्यायों में त्कीर्ण विनाशी होकर औदयिक एवं क्षायोपशमिक 'जीव' रूप से सदा विद्यमान रहता है। इससे , भावों से सादि-सान्तता भी होती है। आत्मा का उसकी 'नित्यता' भी सिद्ध होती है। जैसे जल, स्वभाव कर्मजनित है, इस दृष्टि से, कर्मजनित तरंग-कल्लोल आदि की अपेक्षा से उत्पाद व्यया-5 औदयिक-आदि भाव भी उसके हैं। कर्म का मक स्वरूप वाला, अतएव 'अनित्य' कहा जाता स्वभाव है बंधना और निर्जरित होना । अतः कम है। परन्त जलरूप द्रव्यात्मकता के कारण नित्य' में भो सादि-सान्तता है। इसी अपेक्षा से जीव में भी सिद्ध होता है। ठीक इसी प्रकार, जीव भी भी सादि-सान्तता बन जाती है । द्रव्य दृष्टि से 'नित्य' है। जबकि गुण-पर्यायों की - यही जीव, क्षायिकभाव की अपेक्षा से सादि- दृष्टि से 'अनित्य' ही है । जीव/आत्मा की नित्याअनन्त भी होता है। क्षायिकभाव, कर्मों के क्षय से नित्यता का यही स्वरूप है ।30 उत्पन्न होता है। अतः जीव में सादिता के साथ द्विविधरूपता अनन्तकालिक स्थिति बन जाने से अनन्तता भी आ द्रव्य की दो शक्तियाँ हैं-क्रियावती शक्ति तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन १६१ ON 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ) 2400 Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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