Book Title: Jain Darshan Sammat Atma
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ अप्पा कत्ता विकत्ता य सुहाण य दुहाण य। अप्पा मित्तममित्त च सुपट्ठिय दुपट्ठियो। आत्मा ही कर्ता और विकर्ता है, यही सुख और दुख का भोक्ता है। आत्मा ही मित्र, अमित्र, सुप्रयुक्त और दुष्प्रयुक्त है। और भी-- ___अप्पा दंतो सुही होई अस्सि लोए परत्थए।' अर्थात आत्मा का दमन करने वाला दोनों लोकों में सुखी होता है। आत्मा के लक्षणों के बारे में इस प्रकार कहा गया है नाणं च दंसगं चैव चरिथं च तवो तहा। विरियं उवभोगो च एवं जीवस्स लक्खणं // 2 अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपभोग आत्मा के लक्षण हैं / 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार' में वादिदेव सूरि ने संसारी आत्मा का स्वरूप बताया है कि-"प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध, चैतन्यस्वरूप, परिणामी, कर्ता, साक्षाद्भोक्ता, स्वदेहपरिमाण, प्रत्येक शरीर में भिन्न और पौद्गलिक कर्मों से युक्त आत्मा है।" चार्वाक जड़ से भिन्न पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं स्वीकार करते / जैनों से बौद्ध दार्शनिक इस बात से सहमत हैं कि चैतन्य जड़पदार्थ का विकार नहीं है। किन्तु वे आत्मा नामक एक सत् पदार्थ के अस्तित्व को नहीं स्वीकार करते, केवल विज्ञान-प्रवाह को मानते हैं। उनका मानना है कि प्रतिक्षण उदय और लय होने वाले इस विज्ञान-प्रवाह के मूल में कोई स्थाई सत् पदार्थ नहीं है। वैशेषिक चैतन्य को, आत्मा से भिन्न, देह-इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला आगन्तुक धर्म मानते हैं। प्रतिसमय अन्यान्य पर्यायों में गमन करने के कारण आत्मा 'परिणामी' है। जैसे सोने के मुकुट, कुण्डल आदि बनते हैं, तब भी वह सोना ही रहता है, ठीक उसी प्रकार चारों गतियों में भ्रमण करते हुए जीव की पर्यायें बदलती हैं, तो भी जीव-द्रव्य वैसा ही रहता है। ____ आत्मा का परिणामी' विशेषण होने के कारण न्याय, वैशेषिक, सांख्य आदि भिन्न हो जाते हैं, क्योंकि वे आत्मा को अपरिणामी कूटस्थनित्य मानते हैं। आत्मा कर्ता तथा साक्षाद्भोक्ता भी है। जैसा कर्म करता है वैसा फल भोगता है। संसारी आत्मा अपनी सत्-असत् प्रवृत्तियों के द्वारा शुभाशुभ कर्मों का स्वयं संचय करता है और उसका फल साक्षात् भोगता है। परिणामी, कर्ता और साक्षाभोक्ता विशेषणों के द्वारा सांख्य अलग हो जाते हैं। कारण वे प्रकृति को कर्ता मानते हैं और पुरुष को कर्त्त त्वशक्ति-रहित, परिणामरहित, आरोपित भोक्ता मानते हैं। आत्मा 'स्वदेह-परिणाम' है कारण उसका संकोच और विस्तार कार्माणशरीर सापेक्ष होता है। कर्मयुक्त दशा में जीव शरीर की मर्यादा में बंधे हुए होते हैं, इसलिए उनका परिणाम स्वतन्त्र नहीं होता। जो आत्मा हाथी के शरीर में रहता है वह चींटी के शरीर में भी रह सकता है क्योंकि उसमें संकोच-विस्तार की शक्ति है / आत्मा का 'स्वदेह-परिणामी' विशेषण होने के कारण न्याय, वैशेषिक, अद्वैतवेदान्ती और सांख्य भिन्न हो जाते हैं, कारण कि वे आत्मा को सर्वव्यापक मानते हैं। आत्मा प्रत्येक शरीर में स्वतन्त्र है। यह जैन-दर्शन की मान्यता सांख्य, नैयायिक और विशिष्टाद्वैतवादी के अनुकूल है, तो भी अद्वैतवादी का मत भिन्न है कारण कि वह मानता है कि स्वभावत: जीव एक है, परन्तु देहादि उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होता है। जैनों की मान्यता है कि आत्मा कर्म-संयुक्त है। जैसे सोना और मिट्टी का संयोग अनादि है वैसे ही जीव और कर्म का संयोग भी अनादि है। जैसे खाया हुआ भोजन अपने आप सप्त धातु के रूप में परिणत होता है, वैसे ही जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म-योग्य पुद्गल अपने आप कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं। आत्मा का पौद्गलिक अदृष्टवान्' विशेषण होने के कारण न्याय-वैशेषिक और वेदान्ती भिन्न हो जाते हैं। कारण कि चार्वाक अदृष्ट को मानते ही नहीं / न्याय-वैशेषिक अदृष्ट को आत्मा का विशेष गुण मानते हैं और वेदान्ती उसे मायारूप मानकर उसकी सत्ता को ही स्वीकार नहीं करते। निष्कर्ष रूप में जैन-दर्शन का आत्मा चैतन्यस्वरूप, विभिन्न अवस्थाओं में परिणत होने पर भी नित्य (कूटस्थनित्य नहीं), शुभाशुभ कर्मों का कर्ता तथा उसके फलों का भोक्ता, स्वदेह-परिणामी, न अण, न विभु किन्तु मध्यम-परिमाण का है। 1. दशवकालिकसूत्र, अ० 4, गाथा 16 2. उत्तराध्ययनसूत्र, 1/55 3. 'प्रमाता प्रत्यक्षादि प्रसिद्ध आत्मा / ', प्रमाणन० तत्त्वा०, सूत्र 7/55 4. 'चैतन्यस्वरूपः परिणामी कर्ता साक्षाद्भोक्ता स्वदेहपरिमाण प्रतिक्षेत्र भिन्न: पौद्गलिकादृष्टांश्चायमिति', प्रमाणनयतस्वालोकालंकार, सूत्र, 7/56 80 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4