Book Title: Jain Darshan Sammat Atma
Author(s): Premchand Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 2
________________ को कारण मानकर उन्होंने आत्मा जैसे एक पृथक् पदार्थ की सत्ता को अस्वीकार किया है। विज्ञानों का प्रवाहरूप आत्मा प्रतिक्षण नष्ट होने के कारण अनित्य है। पूर्व-पूर्व विज्ञान उत्तरोत्तर विज्ञान में कारण रूप होने से मानसिक अनुभव और स्मरणादिक की असिद्धि नहीं है। बौद्ध अनात्मवादी होते हुए भी कर्म, पुनर्जन्म और मोक्ष को स्वीकार करते हैं । डॉ० फरकोहर का मत है कि बुद्ध पुनर्जन्म को मानते थे किन्तु आत्मा के अस्तित्व में उनका विश्वास नहीं था। यदि बुद्ध आत्मा की नित्यता को नहीं मानते थे तो पुनर्जन्म में उनका विश्वास कैसे हो सकता था। बाल्य, युवा और वृद्धावस्था में एक ही व्यक्ति का अस्तित्व कैसे माना जा सकता है। प्रतीत्यसमुत्पाद और परिवर्तनवाद के कारण नित्य आत्मा का अस्तित्व अस्वीकार करते हुए भी बुद्ध यह स्वीकार करते थे कि जीवन विभिन्न अवस्थाओं का एक प्रवाह है, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में पूर्वापर कार्य-कारण संबंध रहता है, इसलिए सम्पूर्ण जीवन एकमय प्रतीत होता है । जैसे-दीपकज्योति, वह प्रतिक्षण भिन्न होने पर भी अविच्छिन्न ज्ञात होती है। एक बार बुद्ध ने आत्मा के विषय में पूछने पर कहा था कि यदि मैं यह कहूं कि आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं और यदि यह कहूं कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं।' बुद्ध ने मध्यम मार्ग बताया। राहुल सांस्कृत्यायन का मत है कि बुद्ध के समय में आत्मा के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार प्रचलित थे पहला तो यह कि आत्मा शरीर में बसने वाली, पर उससे भिन्न एक शक्ति है, जिसके रहने से शरीर जीवित रहता है और जिसके चले जाने से वह शव हो जाता है। दूसरा आत्मा शरीर से भिन्न कोई कूटस्थ वस्तु नहीं है । शरीर में ही रसों के योग से आत्मा नामक शक्ति पैदा होती है, जो शरीर को जीवित रखती है। रसों का न्यूनाधिक्य होने से इस शक्ति का लोप हो जाता है, जिससे शरीर जीवित नहीं रह पाता। बुद्ध ने अन्यत्र की तरह यहां पर भी मध्यम मार्ग अपनाया और बताया कि आत्मा न तो सनातन है, न कूटस्थ और न ही वह शरीर के रसों पर अवलम्बित है और न ही शरीर से भिन्न है। वह असल में भूतों (स्कन्धों) और मन के योग से उत्पन्न एक शक्ति है। जो अन्य बाह्यभूतों की भाँति क्षण-क्षण उत्पन्न और विलीन होती रहती है। उन्होंने न तो भौतिकवादियों के अनुच्छेदवाद को स्वीकार किया और न उपनिषद्वादियों के शाश्वतवाद को। आत्मा के विषय में उनका मत अशाश्वतानुच्छेदवाद का पर्याय था। माध्यमिक बौद्धों के अनुसार व्यवहार दशा में जीवात्मा प्रतिभासित होता है, किन्तु उसका मूलस्वरूप शून्य ही है। वेदान्तदर्शन शंकराचार्य का मत है कि स्वभावतः जीव एक और विभु है, परन्तु शरीरादि उपाधियों के कारण अनेक प्रतीत होता है। एक विषय का दूसरे विषय के साथ भेद, ज्ञात और ज्ञेय का भेद, जीव और ईश्वर का भेद ये सब माया की सृष्टि है। उपनिषदों में प्रतिपादित जीव और ब्रह्म की एकता के वे पूर्ण समर्थक हैं । शंकराचार्य का कथन है कि प्रमाण आदि सकल व्यवहारों का आश्रय आत्मा ही है । अतः इन व्यवहारों से पहले ही उस आत्मा की सिद्धि है । आत्मा का निराकरण नहीं हो सकता, निराकरण होता है तो आगन्तुक वस्तु का, स्वभाव का नहीं। मनुष्य, शरीर और आत्मा के संयोग से बना हुआ जान पड़ता है परन्तु जिस शरीर को हम प्रत्यक्ष देखते हैं, वह अन्यन्य भौतिक विषयों की तरह माया की सृष्टि है, इस बात का ज्ञान हो जाने पर आत्मा और ब्रह्म में कुछ अन्तर नहीं है। रामानुज के विशिष्टाद्वैत के अनुसार ब्रह्म ही ईश्वर है, उसके शरीर-भूत जीव और जगत् उससे भिन्न हैं तथा नित्य हैं। अत: जीव और जगत् उससे भिन्न हैं तथा नित्य हैं, अतः पदार्थ एक नहीं तीन हैं--- चित्, अचित् तथा ईश्वर । जीव (चित्) अणुपरिमाण है किन्तु अनन्त है। सांख्य-दर्शन सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति और पुरुष (आत्मा) दो मूल तत्त्व हैं । प्रकृति जड़ है परन्तु पुरुष चेतन तथा अनेक हैं । सांख्य आत्मा को नित्य और निष्क्रिय मानता है। सांख्य पुरुष को अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वव्यापी, क्रियारहित, अकर्ता, निर्गुण और सूक्ष्म मानता १. बलदेव उपाध्याय : भारतीय दर्शन, पृ० १८५ २.दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय, पृ० १३५-१३६ ३. 'अस्तीति शाश्वतग्राही, नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । ___ तस्मादस्तित्व-नास्तित्वे, नाश्रीयेत विचक्षणः ॥', मा० का०, १८/१० ४. दिनकर : संस्कृति के चार अध्याय, पृ० १३६ ५. वही, पृ० १३६ ६. 'आत्मा तु प्रमाणादिव्यवहाराश्रयत्वात प्रागेव प्रमाणादिव्यवहारात सिध्यति । न चेदृशस्य निराकरण संभवति, आगन्तुकं हि निराक्रियते न स्वरूम।', शांकरभाष्य, २/३/७ ७. 'बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ।', श्वे०, ५/8 ७८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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