Book Title: Jain Darshan Sammat Atma Author(s): Premchand Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ जैन दर्शन सम्मत आत्मा जनेतर दर्शनों के आलोक में डॉ० प्रेमचन्द जैन भारतीय विचार-जगत् के दार्शनिक-वाङ्मय में सुदीर्घ काल से अनुभूतिधारक तत्त्व अर्थात् आत्मा के सम्बन्ध में उत्सुकता एवं विचारात्मक अनुसन्धान चला आ रहा है। अब तक अनेक तीर्थकर, ऋषि-मुनि, तत्त्व-चिन्तक, संन्यासी, ईश्वर-भक्त, सन्त, मनीषा-निधि, दार्शनिक पुरुष और सर्वोच्च कोटि के निर्मल चरित्र सम्पन्न लोक-सेवक नानाविध भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगूढ समस्याओं का चिन्तन-मनन करते हुए इस विचार-मन्थन में अनुरक्त रहे हैं कि इस महान् अज्ञात और अज्ञेय रहस्य वाले ब्रह्माण्ड में मौलिकता तथा अमरता का कौन-सा सत्त्व है? इस दार्शनिक विचारणा की धारा शनैःशनैः विभिन्न कोटि के चिन्तकों के मस्तिष्क में प्रवाहित होने लगी और परिणामस्वरूप नित्य नये-नये विचार और नई-नई व्यवस्थाएं तथा अपूर्व कल्पनायें इस अनुभूतिमय तत्व के सम्बन्ध में उपस्थित होने लगीं। उन्हीं को आधार करके मैं यहां यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि विभिन्न भारतीय दर्शनों में आत्मा के विषय में क्या मन्तव्य है ? चार्वाक दर्शन चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को ही एकमात्र प्रमाण मानता है। अत: उसके मत में स्वर्ग, नरक, आत्मा, परलोक आदि नहीं है। यह संसार इतना ही है जितना दृश्यमान् है। जड़ जगत् पृथ्वी आदि चार प्रकार के तत्त्वों से बना हुआ है। जैसे पान, चने और कत्थे में अलगअलग से ललाई नहीं दीखती, पर उनके मिलाने से ललाई उत्पन्न हो जाती है और मादक द्रव्यों के संयोग से मदिरा में मादकता का आविर्भाव होता है, वैसे ही पृथ्वी आदि चारों भूत जब देहरूप में परिणत होते हैं, तब उस परिणामविशेष से उसमें चैतन्य उत्पन्न हो जाता है। उस चैतन्य-विशिष्ट देह को जीव कहा जाता है। "मैं स्थूल हूं", "मैं कृश हूं", "मैं दुःखी हूं" आदि अनुभवों का ज्ञान हमें चैतन्ययुक्त शरीर से होता है । इन तत्वों (भूतों) के नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है। अतः चैतन्य-विशिष्ट शरीर ही कर्ता तथा भोक्ता है। उससे भिन्न आत्मा के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है। शरीर अनेक हैं, अत: उपलक्षण से जीव भी अनेक हैं। शरीर के साथ उत्पत्ति एवं विनाश स्वीकार करने से वह शरीराकार और अनित्य है। चार्वाक का एकदेश कोई इन्द्रिय को, कोई प्राण को और कोई मन को भी आत्मा मानते हैं। कोई चैतन्य को ज्ञान और देह को जड़ मानते हैं। उनके मत में आत्मा ज्ञान-जड़ात्मक है। बौद्ध-दर्शन बौद्ध दार्शनिकों ने नित्य शाश्वत आत्म-सत्ता का निषेध किया है, परन्तु आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं किया। इनके अनुसार आत्मा से किसी स्थायी द्रव्य का बोध नहीं होता है, किन्तु विज्ञान-प्रवाह का बोध होता है।६ विज्ञान के गुणरूप होने के कारण उसका कोई परिणाम नहीं है । बुद्ध को उपनिषद् प्रतिपादित आत्मा के रहस्य को समझाना प्रधान-विषय था। सकल दुष्कर्मों के मूल में इसी आत्मवाद १. किण्वादिभ्यो मदशक्तिबच्चैतन्यमुपजायते।', सर्वदर्शनसंग्रह, पृ०२ २. 'चैतन्यविशिष्टदेह एवात्मा।', सर्व० द० संग्रह, पृ०४ ३. 'विज्ञानघन एवतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति ।', बृ०, २/४/१२ ४. 'चार्वाकै कदेशिन एव केचिदिन्द्रियाण्येवात्मा, अन्ये च प्राण एव-आत्मा अपरे च मन एवात्मेति मन्यन्ते ।', सर्व० ८० संग्रह, पृ०५६ ५. चैतन्य विशिष्टे देहे च चैतन्यांशो बोधरूपः देहांश्च जड़रूप इत्येतन्मते जड़बोधैतदुभयरूपो जीवो भवति ।', सर्व० द० संग्रह, पृ० ५६ ६. 'विज्ञानस्वरूपो जीवात्मा ।', सर्व० द० संग्रह, पृ० ५७ जैन दर्शन मीमांसा ७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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