Book Title: Jain Chalisa Sangraha
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 4
________________ पांचो पद के पैतीस अक्षर, अट्ठावन मात्राए हैं सुखकर ||५|| मंत्र चौरासी लाख कहाए, इससे ही निर्मित बतलाए ||६|| अरिहंतो को नमन किया हैं, मिथ्यातम का वमन किया हैं ||७|| सब सिद्धो को वन्दन करके, झुक जाते भावों में भरकर ||८|| आचार्यों की पद भक्ति से, जीव उबरते नीज शक्ति से ||९|| उपाध्याय गुरुओं का वन्दन, मोह तिमिर का करता खंडन ||१०|| सर्व साधुओ को मन में लाना, अतिशयकारी पुन्य बढ़ाना ||११|| मोक्षमहल की नीव बनाता, अतः मूल मंत्र कहलाता ||१२|| स्वर्णाक्षर में जो लिखवाता, सम्पति से टूटे नहीं नाता ||१३|| णमोकार की अद्भुत महिमा, भक्त बने भगवन ये गरिमा || १४|| जिसने इसको मन से ध्याया, मनचाहा फल उसने पाया || १५ || अहंकार जब मन का मिटता, भव्य जीव तब इसको जपता ||१६|| मन से राग द्वेष मिट जाता, समता बाव ह्रदय आता ||१७|| अंजन चोर ने इसको ध्याया, बने निरंजन निज पद पाया || १८ || पार्श्वनाथ ने इसको सुनाया, नाग-नागिनी सुर पद पाया ||१९|| चाकदत्त ने अज की दीना, बकरा भी सुर बना नवीना ||२०|| सूली पर लटके कैदी को, दिया सेठ ने आत्मशुद्धि को ||२१|| हुई शांति पीड़ा हरने से, देव बना इसको पढ़ने से ||२२|| पदमरुची के बैल को दीना, उसने भी उत्तम पद लीना || ||२३|| श्वान ने जीवन्धर से पाया, मरकर वह भी देव कहाया ||२४|| 4

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