Book Title: Jain Center Cincinnati OH 1987 Directory Author(s): Ila D Punater Publisher: USA Jain Center Cincinnati OHPage 31
________________ Jain Education International 2010_03 For Privat & Personal Use Only www.jainelibrary.org 31 मेरी - भावना जिसने राग-द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया । सब जीवों को मोक्ष मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया || १ || बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्ति भाव से प्रेरित हो यह, चित्त उसी में लीन रहो ||२|| विषयों की आशा नहि जिनके साम्यभाव धन रखते हैं । निज-पर के हित-साधन में जो, निशदिन तत्पर रहते हैं || ३ || ऐसे ज्ञानी साधु जगत के रहे सदा सत्संग उन्हीं का उनहीं जैसी चर्या में यह स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, विना खेद जो करते हैं । दुःख समूह को हरते हैं || ४ || ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । वित्त सदा अनुरक्त रहे ||५|| नहीं सताऊँ किसी जीव को झूठ कभी नहीं कहा करूँ । परधन वनिता पर न लभाऊँ, संतोषामृत पिया करूँ || ६ || अहंकार का भाव न रक्खूं, नहीं किसी पर क्रोध करूँ । देख दूसरों की बढ़ती को कभी न ईर्षा भाव धरूँ ||७|| रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूँ । बने जहाँ तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूँ || ८ || मैत्री भाव जगत में मेरा, सव जीवों से नित्य रहे । दीन-दुःखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्रोत वहे || ६ || दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवं । साम्य-भाव क्यूँ मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावै ॥ १० ॥ गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे । वने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै ।।११।। होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवै । गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ।। १२ ।। कोई बुरा कहो या अच्छा, लाखों वर्षों तक जीऊँ या अथवा कोई कैसा ही भय, तो भी न्याय मार्ग से लालच देने आवै । या मेरा, कभी न पद डिगने पावे ||१४|| फूले, दुख में कभी न घबराव | अटवी से नहीं भय खावं ।। १५ ।। में मग्न न होकर सुख पर्वव- नदी - श्मशान भयानक, लक्ष्मी मृत्यु रहे अडोल अकंप निरंतर यह इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, सुखी रहें सब जीव जगत के वैर- पाप अभिमान छोड़ जग, आवै या जावै । आज ही आ जावे ||१३|| मन दृढ़तर बन जावै । सहनशीलता दिखलावे ।। १६ ।। कोई कभी न घवरावै । नित्य नये मंगल गावे ।। १७ । ||१८|| घर-घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत दुष्कर हो जावें । ज्ञान- चरित्र उन्नत कर अपना मनुज-जन्म-फल सब पावें । ईति भीति व्यापै नहीं जग में, वृष्टि समय पर हुआ करें । धर्मनिष्ठ होकर राजा भी, न्याय प्रजा का किया करें ।। १९ ।। रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शान्ति से जिया करें। परम अहिंसा धर्म- जगत में फैल, सर्व-हित किया करें ||२०|| फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करें। अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहीं, कोई मुख से कहा करे ||२१|| बन कर सब 'युगवीर' हृदय से देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु- स्वरूप विचार खुशी से, सब दुःख संकट सहा करें ||२२||Page Navigation
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