Book Title: Jain Agamo me Nari
Author(s): Vijay Kumar Sharma
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 5
________________ अर्थात् स्त्रियां नवनीत के सदृश हैं जो दुरुपयोग से विषवाहक एवं सदुपयोग से अमृत का वाहन करने वाली होती हैं। स्त्रियों को नदी के जल के सदृश कहा गया है जो समुद्र में मिलकर अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को समाप्त कर समुद्र का जल हो जाता है। इसी प्रकार स्त्रियां अपने पति में समाहृत होकर अपने त्याग की पराकाष्ठा को ही द्योतित करती हैं। आगम ग्रन्थों के स्त्रियों के प्रति इन सामान्य धारणाओं के अवलोकन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वहाँ पुरुषों: से इन्हें हीन दिखाने का प्रयास नहीं, अपितु कैवल्य प्राप्ति के उद्देश्य से प्रबजित भिक्षुओं का उनके प्रति विकर्षण मात्र उत्पन्न करना है। विवाह :-आगम ग्रन्थों में स्त्रियों के सम्बन्ध में सामान्य धारणाओं के विवेचन के उपरान्त उनकी सामाजिक स्थिति के सच्चे वर्णन हेतु तत्कालीन विवाह-प्रणाली की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है। विवाह का हिन्दू संस्कारों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है । अधिकांश गृहसूत्र का प्रारम्भ विवाह संस्कार से होता है। इसकी प्राचीनता का प्रमाण तो ऋग्वेद' एवं अथर्ववेद' में इसकी काव्यमय अभिव्यक्ति हैं। विवाह को यज्ञ का स्थान प्राप्त था। अविवाहित व्यक्ति को अयज्ञिय अथवा यशहीन कहा जाता था।' जब तीन ऋणों के सिद्धान्त का विकास हुआ तो विवाह को अधिकाधिक महत्त्व और पवित्रता प्राप्त होने लगी।' एकाकी पुरुष तो अधूरा है, उसकी पत्नी उसका अर्धभाग है, ऐसी धारणायें विवाह के साथ ही स्त्रियों के प्राचीन भारत में महत्त्व को भी दर्शाती हैं। अनेक कारणों से भारतवर्ष में विवाह को आदर की दृष्टि से देखा जाता था। निस्सन्देह, मानव विकास के पशुपालन और कृषि-युग में इस आदर या महत्त्व के मूल में अनेक आर्थिक और सामाजिक कारण विद्यमान थे। कालक्रम से हिन्दू धर्म में सामाजिक तथा आर्थिक कारणों की अपेक्षा देवताओं एवं पितरों की पूजा ही विवाह का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य माना जाने लगा। भारत के सदश ही अन्य प्राचीन राष्ट्र, यथा इसराइल, यूनान, स्पार्टा, रोम आदि में भी विवाह को एक पवित्र संस्कार माना जाता था।' प्लूटार्क के अनुसार स्पार्टा में अविवाहित व्यक्ति अनेक अधिकारों से वंचित कर दिये जाते थे और युवक अविवाहित वृद्धों का सम्मान नहीं करते थे।' हाँ ईसाई धर्म विवाह के सम्बन्ध में थोड़ा इतर विचार वाला अवश्य प्रतीत होता है। जो भी हो, उपयुक्त विवरण के आधार पर इतना तो कहा ही जा सकता है कि विवाह के मूल में सम्भवतः नवजात शिशु की पूर्ण असहायावस्था तथा विभिन्न अवधियों के लिये माता एवं नवजात शिशु की रक्षा एवं उनके लिये उस अवधि में भोजन की आवश्यकता थी। इस प्रकार विवाह का मूल परिवार में निहित प्रतीत होता है, विवाह में परिवार का नहीं । स्त्री और पुरुष के स्थायी सम्बन्ध की जड़ ही पंतक कर्तव्यों में निहित है। पुत्र के लिये कामना. शिशु तथा पत्नी की रक्षा, गार्हस्थ्य जीवन की आवश्यकता तथा पारिवारिक जीवन का आदर्श वैवाहिक विधि-विधानों एवं कर्मकाण्डों में वर्णित हैं । हिन्दू संस्कार पूर्ण विकसित, साङ्गोपाङ्ग, स्थायी तथा नियमित विवाह को ही मान्यता प्रदान करता है। स्पष्ट है कि हिन्दू शास्त्रों के अनुसार विवाह स्त्री-पुरुष के बीच एक अस्थायी गठबन्धन नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक एकता है । इसी एकता का वह परमपवित्र बंधन कहा जा सकता है जो दैवी विधान एवं धर्मशास्त्रों के साक्ष्य में सम्पन्न होता है। आगम साहित्य में भी विवाह के सम्बन्ध में इसी प्रकार की सामान्य धारणा मिलती है। हिन्दु शास्त्रों के अनुसार विवाह की प्राचीनता, आवश्यकता एवं उपयोगिता की रूपरेखा जानने के पश्चात् विवाह योग्य वय एवं प्रकार का जानना आवश्यक प्रतीत होता है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद के मंत्रों से यह स्पष्ट लक्षित होता है कि वैदिक काल में वर-वध इतने प्रौढ़ होते थे कि स्वयं अपने सहयोगी का चुनाव करते थे। वर से यह अपेक्षा की जाती थी कि उसका अपना एक स्वतन्त्र घर हो और जिसकी साम्राज्ञी उसकी पत्नी हो, भले ही उस घर में वर के माता-पिता भी क्यों न रहते हों। गार्हस्थ्य जीवन में पत्नी को सर्वोच्च स्थान दिया जाता था। स्पष्ट है कि बाल-विवाह का प्रचलन नहीं था । जैन आगमों में विवाह योग्य वय का कोई निश्चित वर्णन नहीं १. ऋग्वेद ६०-८५ २. अथर्ववेद-१४.१.२ ३. अयज्ञियो वा एष योऽपत्नीक:-तै० ब्रा० २.२.२६ ४. जायमानो ह वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवान् जायते ब्रह्मयज्ञन ऋषिभ्यो यज्ञन देवेभ्यः प्रजा पितृभ्यः-तै० सं० ६.३.१०.५ विलिस्टाइन गुडसेल 'ए हिस्ट्री ऑव द फैमिली एज ए सोशल एण्ड एजुकेसनल इंस्टिट्यूशन, ५-५८ ६. लाइफ ऑव लिकर्गस, बॉन्स क्लासिकल लाईब्रेरी, भा० १, पृ०८१ ७. विलिस्टाइन गुडसेल ‘ए हिस्ट्री ऑव द फैमिली एज ए सोशल एण्ड एजुकेशनल इंस्टिट्यूसन पृ० ८० ८. ऋग्वेद ८.५५, ५,८ १. अथर्ववेद १४, १-४४ जैन इतिहास, कला और संस्कृति १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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