Book Title: Jain Agamo me Nari
Author(s): Vijay Kumar Sharma
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ एक तरफ हटना, भ्र भंग करना, गंध, रस और स्पर्श । स्त्री रूप, स्त्री शब्द, स्त्री गंध, स्त्री रस और स्त्री स्पर्श पुरुषों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करता है।' राजा को तो स्त्रियों से और भी बचकर रहने हेतु कहा गया है। स्त्रियों से पुनः-पुनः मिलना उनके लिये खतरे का निमन्त्रण बताया गया है। स्त्री गृह में राजा के प्रवेश की तुलना सर्प बिल में मण्डूक के प्रवेश से की गई है। आगम साहित्य में अनेक बार यह दिखलाया गया है कि किस प्रकार स्त्रियों की माया में पड़ कर अनेक राजाओं ने अपना विनाश आमंत्रित किया। स्त्रियों को शिक्षा कुशल गृहिणी मात्र बनाने के लिये दी जाय – “नातीव स्त्रियः व्युत्पादनीयाः स्वभावसुभगोऽपि शस्त्रोपदेशः।" स्त्रियों का कर्तव्य एवं अधिकार अपने पति तथा बच्चों की सेवामात्र ही निर्धारित है। पुरुषों के कार्यक्षेत्र में उनका हस्तक्षेप सर्वथा वजित था। उन्हें चंचल कहा गया है। उनके मानसिक स्तर की चंचलता की तुलना कमल-पत्र पर गिरे जल-बिन्दु से की गयी है, जो पतन के अनन्तर शीघ्र ही फिसल जाता है । वैसे पुरुषों की गति नदी की तेज धार में गिरे वृक्ष के सदृश बताई गई है जिसे दीर्घकाल तक जल के थपेड़ों को सहना पड़ता है । आगमों का यह नित्यमत है कि स्त्रियां पुरुष के नियन्त्रण में रहकर ही रक्षित एवं इच्छित की प्राप्ति कर सकती हैं। जिस प्रकार असि पुरुष के हाथ में रहकर ही शोभता है उसी प्रकार स्त्री भी पुरुषाश्रय में ही शोभित होती है। इस कथन की पुष्टि 'नीतिवाक्यामृत' के इन श्लोकों में से हो जाती है : अपत्यपोषणे गृहकर्मणि शरीर-संस्कारे । शयनावसरे स्त्रीणां स्वातंत्र्यं नान्यत्र । स्त्रीवशपुरुषो नदीप्रवाहपतितपादप इव न चिरं नन्दति । पुरुषमुष्टिस्था स्त्री खड़गयष्टिरिव कमुत्सवं न जनयति ॥' स्त्रियों को दृष्टिवाद सूत्र, महापरीक्षा सूत्र एवं अरुणोपात सूत्र का अध्ययन निषिद्ध है।' इनके निषेध का कारण इन सूत्रों में सर्वकामप्रद विद्यातिशयों का वर्णन है। इसके साथ ही स्त्रियों को शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से कमजोर, अहंकारबहल एवं चंचला कहा गया है। चूंकि ये सूत्र इनकी शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से ग्राह्य नहीं हो सकते अतः नारी के लिये इनका अध्ययन निषिद्ध है। इतना ही नहीं, भिक्षुओं की तुलना में भिक्षुणियों के लिये अधिक कठोर विनय के नियमों का विधान जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय में है। इसकी पराकाष्ठा तो इस उल्लेख से होती है जिसमें तीन वर्ष की पर्याय वाला निग्रन्थ तीस वर्ष की पर्याय वाली उपाध्याय तथा पांच वर्ष की पर्याय वाला निग्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य हो सकता है। इतना ही नहीं, शताय साध्वी को भी एक नवुकत्तर भिक्षु के आगमन पर श्रद्धापूर्वक आसन से उठ अभिनन्दन करने का आदेश है। बौद्ध धर्म में भी गुरु धर्मों के अन्तर्गत बताया गया है कि यदि कोई भिक्षुणी सौ वर्ष की पर्याय वाली हो तो भी शीघ्र प्रव्रजित भिक्ष का अभिवादन करना चाहिए और उसे देखते ही सम्मान से आसन से उठ जाना चाहिये। जैन सूत्रों में स्त्रियों को मैथुनमूलक बताया गया है जिनके कारण अनेकानेक संग्राम हुए। इस सम्बन्ध में सीता, द्रौपदी. रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कंचना, रक्तसुभद्रा, अहिन्निका, सुवन्नंगुलिया, किन्नरी, सुरूपा आदि का नाम उल्लेखनीय है। स्त्रियों के सम्बन्ध में इन हेय विचारों के अतिरिक्त आगम ग्रन्थों में कुछेक प्रशस्ति-वाक्य भी प्राप्त हैं। ये सामान्यतया साधारण समाज द्वारा मान्य नहीं हैं। इससे यही प्रमाणित होता है कि स्त्रियों के आकर्षक सौन्दर्य से कामुकतापूर्ण साधुओं की रक्षा के लिये, स्त्री-चरित्र को लांछित करने का प्रयत्न है । विषय-विलास और आत्मकल्याण में आग-पानी का सा विरोध है। इसलिये अखिल जीव कोटि के कल्याण में संलग्न श्रमण सम्प्रदाय विषय-विलास की प्रधान साधन रूप 'उस नारी' की भरपेट निन्दा न करते तो क्या करते ? ऐसी निन्दा से, ऐसी दोष-दृष्टि से ही तो उस ओर वैराग्य उत्पन्न होगा। इसके अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायों की तत्कालीन रचनाओं के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि स्त्रियां कैसे दुनियाँ भर के दोषों की खान हो गई और वह भी विशेषकर जैन और बौद्ध काल में । बृहत्संहिता के रचयिता वराहमिहिर ने स्त्रियों के प्रति आगम के इस भाव का विरोध करते हुए कहा है-"जो १. अंगुत्तर निकाय-३, ८ पृ० ३०६, वही १०, १, पृ०३ २. आचार्य सोमदेव, नीतिवाक्यामृत, पृ० २४.४६, २४-४२ ३. व्यवहार ७.१५-१६; ७.४०७ चूल्लवग्ग-१०, १-२, पृ० ३७४-५ ५. प्रश्नव्याकरण-१६ पृ० ८५ अ, ८६ अ जैन इतिहास, कला और संस्कृति १६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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