Book Title: Jain Agamo me Mulyatmaka Shiksha aur Vartaman Sandarbh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ 163 जैन आगमों में शिक्षा और वर्तमान सन्दर्भ पशु-पक्षी भी तो अपना पेट भरते ही हैं। अतः शिक्षा को रोजी-रोटी से जोड़ना गलत है ! यह सत्य है कि बिना रोटी के मनुष्य का काम नहीं चल सकता। दैहिक जीवन मूल्यों में उदरपूर्ति व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है, इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है किन्तु इसे ही शिक्षा का "अथ और इति" नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह कार्य शिक्षा के अभाव में भी सम्भव है। यदि उदरपूर्ति/आजीविका अर्जन ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो तो फिर मनुष्य पशु से भिन्न नहीं होगा। कहा भी है -- __ "आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतद पशुभिः नराणाम्। ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।" पुनः यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को अधिक सुख-सुविधा पूर्ण जीवन-जीने योग्य बनाना है, तो उसे भी हम शिक्षा का उद्देश्य नहीं कह सकते। क्योंकि मनुष्य के दुःख और पीडाएँ भौतिक या दैहिक स्तर की ही नहीं है, वे मानसिक स्तर की भी हैं। सत्य तो यह है कि स्वार्थपरता, भोगाकांक्षा और तृष्णाजन्य मानसिक पीडाएँ ही अधिक कष्टकर है, वे ही मानवजाति में भय एवं संत्रास का कारण है। यदि भौतिक सुख-सुविधाओं का अम्बार लगा देने में ही सुख होता तो आज अमेरिका (U.S.A. ) जैसे विकसित देशों का व्यक्ति अधिक सुखी होता, किन्तु हम देखते हैं वह संत्रास और तनाव से अधिक ग्रस्त है। यह सत्य है कि मनुष्य के लिये रोटी आवश्यक है, लेकिन वही उसके जीवन की इति नहीं है। ईसामसीह ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जी सकता है। हम मनुष्य को भौतिक सुखों का अम्बार खड़ा करके भी सुखी नहीं बना सकते। सच्ची शिक्षा वही है जो मनुष्य को मानसिक संत्रास और तनाव से मुक्त कर सके। उसमें सहिष्णुता, समता, अनासक्ति, कर्तव्यपरायणता के गुणों को विकसित कर, उसकी स्वार्थपरता पर अंकुश लगा सके। जो शिक्षा मनुष्य में मानवीय मूल्यों का विकास न कर सके उसे क्या शिक्षा कहा जा सकता है ? यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज शिक्षा का सम्बन्ध "चारित्र" से नहीं "रोटी" से जोड़ा जा रहा है। आज शिक्षा की सार्थकता को चरित्र निर्माण में नहीं, चालाकी ( डिप्लोमेसी) में खोजा जा रहा है। शासन भी इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त है। नैतिक शिक्षा या चरित्र की शिक्षा में शासन को धर्म की "बू" आती है, उसे अपनी धर्मनिरपेक्षता दूषित होती दिखाई देती है, किन्तु क्या धर्म निरपेक्षता का अर्थ धर्महीनता या नीतिहीनता है ? मैं समझता हूँ धर्म निरपेक्षता का मतलब केवल इतना ही है कि शासन किसी धर्म विशेष के साथ आबद्ध नहीं रहेगा। आज हुआ यह है कि धर्म निरपेक्षता के नाम पर इस देश में शिक्षा के क्षेत्र से नीति और चरित्र की शिक्षा को भी बहिष्कृत कर दिया गया है। चाहे हम अपने मोनोग्रामों में "सा विद्या या विमुक्तये" की सूक्तियाँ उद्धृत करते हों, किन्तु हमारी शिक्षा का उससे दूर का भी कोई रिश्ता नहीं रह गया है। आज की शिक्षा योजना में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है, जबकि उच्च शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अभी तक बिठाये गये तीनों आयोगों ने अपनी अनुशंसाओं में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा की महती आवश्यकता प्रतिपादित की है। आज का शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों ही अर्थ के दास हैं। एक ओर शिक्षक इसलिये नहीं पढ़ाता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11