Book Title: Jain Agamo me Mulyatmaka Shiksha aur Vartaman Sandarbh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 7
________________ प्रो. सा रमल जैन 168 शिक्षा जीवन के सभी पहलुओं का स्पर्श करती है। कलाचार्य के बाद दूसरा स्थान शिल्पाचार्य का था। शिल्पाचार्य वस्तुतः वह व्यक्ति होता था जो आजीविका अर्जन से सम्बन्धित विविध प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देता था। आज जिस प्रकार विभिन्न औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थायें प्रशिक्षण प्रदान करती हैं, उस काल में यही कार्य शिल्पाचार्य करते। इनके ऊपर धर्माचार्य का स्थान था। इनका दायित्व वस्तुतः व्यक्ति के चारित्रिक गुणों का विकास करना था। वे शील और सदाचार की शिक्षा देते थे। इस प्रकार-प्राचीन काल में शिक्षा को तीन भागों में विभक्त किया गया था और इन तीनों विभागों का दायित्व तत्-तत् विषयों के आचार्य निर्वाह करते थे। जैन परम्परा में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य के जो निर्देश उपलब्ध होते है उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय चिन्तन में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ या जीवन-मूल्य माने गये हैं, उनमें मोक्ष तो साध्य पुरुषार्थ है, अतः शेष तीन पुरुषार्थों की शिक्षा की व्यवस्था अलग-अलग तीन आचार्यों के लिए नियत की गई थी। शिल्पाचार्य का कार्य अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा देना था, तो कलाचार्य का काम भाषा लिपि और गणित की शिक्षा के साथ-साथ काम पुरुषार्थ की शिक्षा देना था। धर्माचार्य का कार्य मात्र धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ से ही सम्बन्धित था इस प्रकार विविध जीवन मूल्यों की शिक्षा के लिए विविध आचार्यों की व्यवस्था थी। चूँकि जैनधर्म मूलतः एक निवृत्ति मूलक और संन्यासपरक धर्म था इसलिए धर्माचार्य का कार्य धर्म और मोक्ष की पुरुषार्थ की शिक्षा देने तक ही सीमित रखा गया था। इस प्रकार जीवन के विविध मूल्यों के आधार पर शिक्षा की व्यवस्था भी अलग-अलग थी। आज हम सम्पूर्ण जीवन मूल्यों के लिए जो एक ही प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की बात करते हैं, वह मूल में भ्रांति है, जहाँ शिल्पाचार्य और कलाचार्य वृत्तिमूलक शिक्षा प्रदान करते थे वहाँ धर्माचार्य निवृत्ति मूलक शिला प्रदान करते थे। पुनः यह भी आवश्यक है कि जो आचार्य जिस प्रकार की जीवन शैली जीता है। वह वैसी ही शिक्षा प्रदान कर सकता है। अतः धर्माचार्य से अर्थ और काम की शिक्षा और शिल्पाचार्य एवं कलाचार्य से धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा की अपेक्षा करना उचित नहीं है। वर्तमान सन्दर्भ में यह आवश्यक है कि हम शिक्षा के विविध क्षेत्रों का दायित्व विविध आचार्यों को सौंपे और इस बात का विशेष ध्यान रखें कि जो व्यक्ति जिस प्रकार की शिक्षा के देने के लिए योग्य हो, वही उसका दायित्व सम्भालें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक शिक्षा के क्षेत्र में मानव के सर्वांगीण विकास की कल्पना सार्थक नहीं होगी। "रायफ्सेनीयसुत्त" में जो कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य की व्यवस्था दी गयी है इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा के ये तीनों क्षेत्र मानव जीवन के तीन मूल्यों से सम्बन्धित थे तथा एक-दूसरे से पृथक् थे और सामान्य व्यक्ति तीनों ही प्रकार की शिक्षायें प्राप्त करता था। फिर भी प्राचीनकाल में यह शिक्षा पद्धति व्यक्ति के लिये भार स्वरूप नहीं थी। जहाँ तक आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रश्न था यह धर्माचार्य के सान्निध्य में उपदेशों के श्रवण के माध्यम से प्राप्त की जाती थी। इसके लिये व्यक्ति को कुछ व्यय नहीं करना होता है। सामान्यतया श्रमण परम्परा में धर्माचार्य भिक्षाचर्या से ही अपनी उदरपूर्ति करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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