Book Title: Jain Agamo me Mulyatmaka Shiksha aur Vartaman Sandarbh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 6
________________ 167 जैन आगमों में शिक्षा और वर्तमान सन्दर्भ मुक्ति प्राप्त करता है, जो बहुश्रुत होकर भी अविनीत, अल्पश्रद्धा और संवेग युक्त है वह चरित्र की आराधना नहीं कर पाता है।१४ जिस प्रकार अन्धे व्यक्ति के लिये करोड़ों दीपक भी निरर्थक है उसी प्रकार अविनीत ( असदाचारी ) व्यक्ति के बहुत अधिक शास्त्रज्ञान का भी क्या प्रयोजन ? जो व्यक्ति जिनेन्द्र द्वारा उपदृष्ट अति विस्तुत ज्ञान को जानने में चाहे समर्थ न ही हो, फिर भी जो सदाचार से सम्पन्न है वस्तुतः वह धन्य है, और वही ज्ञानी है। जैन आचार्य यह मानते हैं कि ज्ञान आचरण का हेतु है, मात्र वह ज्ञान जो व्यक्ति की आचार शुद्धि का कारण नहीं होता, निरर्थक ही माना गया है। जिस प्रकार शस्त्र से रहित योद्धा और योद्धा से रहित शस्त्र निरर्थक होता है, उसी प्रकार ज्ञान से रहित आचरण और आवरण से रहित ज्ञान निरर्थक होता है। जैनागम उत्तराध्ययनसत्र में शिक्षा प्राप्ति में बाधक निम्न पाँच कारणों का उल्लेख हुआ है -- (१) अभिमान, (२) क्रोध, (३) प्रमाद, (४) आलस्य और (५) रोग।६ इसके विपरीत उसमें उन आठ कारणों का भी उल्लेख हुआ है जिन्हें हम शिक्षा प्राप्त करने के साधक तत्त्व कह सकते हैं -- (१) जो अधिक हँसी-मजाक नहीं करता हो, (२) जो अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण रखता हो, (३) जो किसी की गुप्त बात को प्रकट नहीं करता हो, (४) जो अशील अर्थात् आचारहीन न हो, (५) जो दूषित आचार वाला न हो, (६) जो रस लोलुप न हो, (७) जो क्रोध न करता हो और (८) जो सत्य में अनुरक्त हो। उससे यही फलित होता है कि जैनधर्म में शिक्षा का सम्बन्ध चारित्रिक मूल्यों से रहा है। वस्तुतः जैन आचार्यों को ज्ञान और आचरण का द्वैत मान्य नही है वे कहते है -- जो ज्ञान है, वही आचरण है, जो आचरण है, वहीं आगम-ज्ञान का सार है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन परम्परा में उस शिक्षा को निरर्थक ही माना गया है जो व्यक्ति के चारित्रिक-विकास या व्यक्तित्व-विकास करने में समर्थ नहीं है। जो शिक्षा मनुष्य को पाशविक वासनाओं से ऊपर नहीं उठा सके, वह वास्तविक शिक्षा नहीं है। जैन आचार्य शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को जीवन और जगत के सम्बन्ध में जानकारियों से भर देना नहीं मानते है, अपितु वे इसका उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास या सद्गुणों का विकास मानते हैं, किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि वे शिक्षा को आजीविका या कलात्मक कुशलता से अलग कर देते हैं। रायपसेनीयसुत्त में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है -- 1. कलाचार्य, 2. शिल्पाचार्य एवं 3. धर्माचार्य। उसमें इन तीनों आचार्यों के प्रति शिष्य के कर्तव्यों का भी निर्देश है। इससे यह फलित है कि जैन चिन्तकों की दृष्टि में शिक्षा व्यवस्था तीन प्रकार की थी। कलाचार्य का कार्य जीवनोपयोगी कलाओं अर्थात् ज्ञान-विज्ञान और ललित कलाओं की शिक्षा देना था। भाषा, लिपि, गणित के साथ-साथ खगोल, भूगोल, ज्योतिष आयुर्वेद संगीत नृत्य आदि की भी शिक्षा कलाचार्य देते थे। वस्तुतः आज हमारे विश्वविद्यालयों में कला, सामाजिक विज्ञान एवं विज्ञान संकाय जो कार्य करते हैं, उन्हीं से मिलता-जुलता कार्य कलाचार्य का था। जैनागमों में पुरुष की 64 एवं स्त्री की 72 कलाओं का निर्देश उपलब्ध है२०, इससे हम अनुमान लगा सकते हैं कि जैनाचार्यों की दृष्टि में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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