Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ka Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 11
________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - इसी भाषा में बोलते हैं। (See-The preface to the childer's Pali - वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश। Dictionary) ब. १. शेष शौरसेनीवत् ८।४।३०२ इससे यही फलित होता है कि मूल बुद्धवचन मागधी में . मागध्यां यदुक्तं ततोअन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम्। थे। पालि उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में बुद्धवचन लिखे गए। वस्तुतः पालि के रूप में २. शेषं शौरसेनीवत ८।४।३२३ मागधी का एक ऐसा संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत पैशाच्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद के विद्वान और भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोग भी आसानी से समझ भवति। सकें। अत: बुद्धवचन मूलतः मागधी में थे, न कि शौरसेनी में। बौद्धत्रिपिटक की पालि और जैन आगमों की अर्धमागधी में ३. शेषं शौरसेनीवत् ८।४।४४६ कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और इसिभासियाई के __ अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति। अपभ्रंशभाषायां तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है। प्राचीन पालि-ग्रन्थों प्रायः शौरसेनीभाषातुल्यं कार्यं जायते,शौरसेनी भाषायाः ये नियमाः की एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते। हेमचन्द्रकृत नहीं है। जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थरचना हो रही प्राकृतव्याकरण। थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा। साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की अत: इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन तीसरी शताब्दी के बाद ही हआ है। संस्कृत के पश्चात सर्वप्रथम सूत्रों में प्रकृति शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषा विकसित हुई है तो यदि हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं तो वे अर्धमागधी एवं पालि ही हैं, न कि शौरसेनी। शौरसेनी का निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित होता है कि मागधी या पैशाची कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की तीसरी-चौथी शती का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन से पूर्व के नहीं है, जबकि पालित्रिपिटक और अर्धमागधी भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उदभत आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई.प. तीसरी-चौथी शती में मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों निर्मित हो चुके थे। नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई गई है यथा . "शौरसेनी - १२/१- टीका शूरसेनानां भाषा शौरसेनी सा च 'प्रकृति : शौरसेनी' का सम्यक अर्थ लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्पुटीकियते इति वेदितव्यम्। जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से परवर्ती अधिकारसूत्रमेतदापरिच्छेदसमाप्ते: १२/१ प्रकृति: संस्कृतम १२/ पी से विकसित मानते हैं वे अपने कथन का आधार २ टीका-शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम्। प्राकृत प्रकाश वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृतप्रकाश और हेमचन्द्र १२/२" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृतव्याकरण के निम्न सूत्रों को करना होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई। इस बताते हैं प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृतप्रकाश के आधार पर यह भी मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी अ. १. प्रकृतिः शौरसेनी १०/२ और उसी से शौरसेनी उत्पन्न हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी। स्थितायां शौरसेन्यां सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं। भाई सुदीपजी जो शौरसेनी पैशाची-लक्षणं प्रवर्तयितव्यम्। के पक्षधर हैं और प्रकृति : शौरसेनी के आधार पर मागधी को । शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी प्रकृतिः संस्कृतम्२. प्रकृतिः शौरसेनी ११(२१ प्राकृतप्रकाश १२/२ के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं है अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम। कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा है। वे स्वयं लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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