Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ka Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
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________________ - यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य विशेषता है। इस प्रसंग में डा. टाँटिया जी के नाम से यह भी एक भी ग्रन्थ है जो ई.पू. में लिखा गया हो? सत्य तो यह है कि कहा गया है कि आज भी आचारांग सूत्र आदि की प्राचीन ईसा की चौथी-पाँचवीं शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय भी ग्रन्थ नहीं था। जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी. टाँटिया जी से और भाई सुदीप जी से साग्रह निवेदन करूँगा की के आगम ई.पू. तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये वे आचारांगऋषिभाषित सूत्रकृतांग आदि की किन्हीं भी प्राचीन लोग जिसे अर्धमागधी कह रहे हैं उसे महाराष्ट्री भी मान लें तो प्रतियों में 'द' श्रुति प्रधान पाठ दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। पाठ मिल रहे हैं, वे अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि सातवाहन हाल की गाथासप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन शौरसेनी के हैं। यह एक अलग बात है कि कुछ शब्दरूप आर्ष ग्रन्थ है, जो इसी ई.पू. प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के अर्धमागधी और शौरसेनी में समान हैं। मध्य रचित है। पुनः यह एक संकलन-ग्रन्थ है जिसमें अनेक वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो 'द' श्रति देखी जाती है। ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई है इसका तात्पर्य यह हुआ कि और न 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रवृत्ति देखी जाती है जिसे / इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रंथ रचे गए थे। कालिदास के व्याकरण में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह नाटक जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है, भी ईसा है कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसेनी रूपान्तरण हुआ है न की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह सत्य है से न केवल अर्धमागधी आगमों से अपितु परवर्ती 'य' श्रति कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु शौरसेनी आगमतुल्य प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं, किसी भी स्थिति में ईसा की कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट / ५वीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षटखण्डागम और प्रभाव है। जिसे हम पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों क्या पंद्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा एवं श्वेताम्बर और उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चतुर्थ शती) से परवर्ती अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था? ही सिद्ध करती है, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस संबंध में मैंने अपने न्थ 'गुणस्थानसिद्धांत-एक विश्लेषण' डा. संदीप जी द्वारा टाँटिया जी के नाम से उद्धृत यह और 'जैन धर्म का यापनीसम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला कथन कि 1500 वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही है। इस प्रकार सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी नहीं था पूर्णतः भ्रान्त है। आचारांग 'सूत्रकृतांग' ऋषिभाषित आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा और शौरसेनी आगम ही ईसा जैसे, आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी की ५वीं शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाई चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है। क्या उस समय सुदीप जी पहले मागधी और पाली तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री ये आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध के अंतर को एवं इनके प्रत्येक लक्षण को, तथा जैन आगमिक थे। ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और णकार की प्रवृत्ति वाली साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ शौरसेनी का जन्म तो उस समय हआ ही नहीं था अन्यथा अशोक दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक के अभिलेखों में और मथुरा (जो शौरसेनी की जन्मभूमि है) के रूप से चलाएँ, व्यर्थ की आधारहीन भ्रांतियाँ खड़ी करके समाज अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्दरूप में कटुता के बीज न बोएँ। उपलब्ध होने चाहिए थे? क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा witonitonianbarobroanoramidnironidirdrinironiro[116Honorardrinidirdindidroriramirariandinidiroren Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org