Book Title: Jain Agamo Me Hua Bhashik Swarup Parivartan Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Sagarmal Jain

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Page 8
________________ ही बद्धा का अतिरके ही है। प्रथम प्रश्न ता यहां है कि क्या अर्धमागधी आगम उसमें किसी प्रकार का ऐसा है तो उनमें अनेक ? अपने वर्तमान स्वरूप में सर्वज्ञ की वाणी हैं? क्या विलोपन, प्रक्षेप या परिवर्तन नहीं हुआ है? यदि स्थलों पर अन्तविरोध क्यों हैं? कही लोकान्तिक देवों की संख्या आठ है कही तो क्यों है? कहां चार स्थावर और दो बस है, कही तीन त्रस और तीन स्थावर कह गये, तो कहीं पाच स्थावर और एक त्रस । यदि आगम प्रशब्दश: महावीर का वाणी है, तो आगमों और विशेष रूप से अंग आग़मो में महावीर के तीन सौ वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए गणों के उल्लेख क्यों है ? यदि कहा जाय कि भगवात् सर्वज्ञ थे और उन्होंने भविष्य की घटनाओं को जानकर (यह उल्लेख किया तो प्रश्न यह कि वह कथन व्याकरण की दृष्टि से भविष्यकालिक भाषा रूप में होना था वह भूतकाल में कहा गया भगवती में गोशालक के प्रति जिस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग हुआ है क्या वह अंश वीतराग भगवान् महावीर की वाणी हो सकती है क्या आज प्रश्न व्याकरण, अन्तकृत दशा, अनुतरोपपातिकूशा और विपाकदशा की विषय-वस्तु वही है, जो स्थानाग में उल्लिखित है ? तथ्य यह है कि यह सब परिवर्तन हुआ है, भाज हम उससे इंकार नहीं कर सकते हैं आज ऐसे अनेक तथ्य है, जो वर्तमान आगम साहित्य को अक्षरशः सर्वज्ञ के वचन मानने में बाधक है। परम्परा के अनुसार भी तज्ञ तो अर्थ (विषय वस्तु) के प्रवक्ता है शब्द रूप तो उनको गणधरा या परवर्ती स्थविरों द्वारा दिया है। पुनः क्या आज हमारे पास जो आगम है. वे ठीक वैसे ही है जैसे शब्द रूप से गणधर गौतम उन्हें रचा था आगम ग्रन्थों में परवर्ती काल में जो विलोपन, परिवर्तन, परिवर्धन और जिनका साक्ष्य स्वयं आगम ही दे रहे है, उससे क्या हम इंकार कर सकते है ? स्वयं देवधि ने इस तथ्य को स्वीकार किया है तो फिर हम नकारने वाले कान होते है? आदरणीय पारखजी लिखते हैं- पण्डितों से हमारा यही आग्रह रहेगा कि कृपया बिना भल सेल के वही पाठ प्रदान करें जो तीर्थकरों ने अर्थरूप में प्ररूपित और गणधरों न सूत्ररूप में संकलित किया था। हमारे लिये वहीं शुद्ध है। सर्वज्ञों को जिस अक्षर शब्द, पद, वाक्य या भाषा को प्रयोग अभीष्ट था, वह सूचित कर गये, अब उसमें असर्वज्ञ फेर बदल नहीं कर सकता। उनके इस कथन के प्रति मेरा प्रथम प्रश्न तो यही है कि आज तक आगमों में जो परिवर्तन होता रहा वह किसने किया ? आज नहीं है ? आज मुर्शिदाबाद, इतन अधिक पाठ भेद क्यों मानें और आपके शब्दों में क्या आज पण्डित आगमी हैं या फिर व उसक शुद्ध स्वरूप को सामने लाना हमारे पास जो गम हैं उनमें एकरूपता क्यों हैदराबाद, बम्बई, लाडनू आदि के संस्करणों में है ? इनमें से हम किस संस्करण को सर्वज्ञ वचन किस भेलसेल कह ? मेरा दूसरा प्रश्न यह है कि में कई भेल सेल कर रहे २४६ तुलसी प्रज्ञा चाहत है किसी भी पाश्चात्य संशोधक दृष्टि सम्पन्न विद्वान् न आगमों में कोई भलसेन किया? इसका एक भी उदाहरण हो तो हमें बतायें। दुर्भाग्य यह ट्रैक शुद्धि के प्रयत्न को मसल का नाम दिया जा रहा है और व्यर्थ में उसकी आलोचना की जा रही है। तुमः जहां तक मेरी जानकारी है डा० चन्द्रा एक भी ऐसा पाठ नही सुझाया है जा आदर्शसम्मत नहीं है। उन्होंने मात्र यहाँ प्रयत्न किया है कि जो भी प्राचीन शब्द रूप किसी भी एक आदर्श प्रति में एक-दो स्थानों पर भी मिल गये उस आधार मानकर अन्य स्थलों पर भी वही प्राचीन रूप रखने का प्रयास किया है। यदि उन्हें भेल संस करना होता तो वे इतने साहस के साथ पूज्य मुनिजनों एवं विद्वानों के विचार जानन के लिये उसे प्रसारित नहीं करते। फिर जब पारखजी स्वयं यह कहते - कि कुल ११६ पाठ भदा म केवल आउसंतण' को छोड़कर शेष ११५ पाठभेद ऐस हैं कि जिनस अर्थ में कोई फक नहीं पड़ता तो फिर उन्होंने ऐसा कोन सा अपराध कर दिया जिससे उनके श्रम की मूल्यवत्ता को स्वीकार करने के स्थल पर उसे नकारा जा रहा है। आज यदि आचारांग के लगभग ४० से अधिक संस्करण है और यह भी सत्य है कि सभी ने आदर्शों के आधार पर ही पाठ छापे है तो फिर किस शुद्ध और किसे अशुद्ध कहें, क्या सभी को समान रूप से शुद्ध मान लिया जायेगा ? क्या हम ब्यावर, जैन विश्वभारती, लाडनू और और महावीर विद्यालय वाले संस्करणों को समान महत्व का समझे भय मेल सेल का नहीं है भय यह है कि अधिक प्रामाणिक एवं शुद्ध संस्करण के निकल जाने से पूर्व संस्करणों के सम्पादन में रही कमियां उजागर हो जाने का और यहां खीज का मूल कारण है। पुनः क्या श्रद्धेय पारख जी "यह बता सकते हैं कि कोई भी ऐसी आदर्श प्रति हैजो पूर्णतः शुद्ध है जब आदशों में भिन्नता र अशुद्धिया है तो उन्हें शुद्ध करने के लिये व्याकरण के अतिरिक्त विद्वान् किसका सहारा लेंगे ? क्या आज तक कोई भी आगम ग्रन्थ बिना व्याकरण का सहारा लिये मात्र आदर्श के आधार पर छपा है। प्रत्येक सम्पादक व्याकरण का सहारा लेकर ही आदर्श की अशुद्धि को ठीक करता है। यदि वे स्वयं यह मानते हैं कि आदर्शो में अशुद्धियां स्वाभाविक हैं। तो फिर उन्हें शुद्ध किस आधार पर किया जाएगा? मैं भी यह मानता हूं कि सम्पादन में आदर्श प्रति का आधार आवश्यक है किन्तु न तो मात्र आदर्श से और न मात्र व्याकरण के नियमों से समाधान होता है। उसमें दोनों का सहयोग आवश्यक है। मात्र यहां नहीं, अनेक प्रतों को सामने रखकर तुलना करके एवं विवेक से भी पाठ शुद्ध करना होता है। जैसाकि आचार्य श्री तुलसी जी ने मुनि श्री जम्बूविजयजी को अपनी सम्पादन शैली का स्पष्टीकरण करते हुए बताया था। आदरणीय पारखजी एवं उनके द्वारा उद्धत मुनि श्री जम्बूविजयजी खण्ड १९, अंक ३ २४७ -

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