Book Title: Jain Agamo Me Hua Bhashik Swarup Parivartan Ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Sagarmal Jain

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Page 10
________________ A अध्ययन, उद्देशक या एक पंराग्राफ में यदि 70 प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या 'य' श्रुति के हैं और मात्र 10 प्रातशत प्रयोग प्राचीन अधमागधी के हैं तो वहा पाठ के महाराट्री रूपको रखना ही उचित है। सभव है कि वह प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसक हित उनमें 60 प्रतिशत प्राचीन रूप है और 40 प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के पतो वहा प्राचीन रूप रखे जा सकते है। पुनः आगम संपादन और पाठ शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये जाने वाले मूल पाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप दिया जाय, किन्तु पाठ टिप्पणियों में सम्पुर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय। इसका लाभ यह होगा कालान्तर में यदि संशाधन कार्य करे तो उसमे मुविधा हो। अन्त में मैं यह कहना चाहूंगा कि प्रो० के० भार० चन्द्रा अपनी शागरिक आदि अनेक सीमाओं के बावजूद भी जो यह अत्यन्त महत्वपूर्ण ओर धममाध्य कार्य कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कदापि उचित नहीं है, क्योंकि वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय है बल्कि एक सही दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें मुझ, तो दे सकते हैं लेकिन अनधिकृत रूप से यन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई देकर | उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते / पयोकि वे जो भी कार्य कर रहे हैं यह बौद्धिक ईमानदारी साथ, निलिप्त भाव में तथा सम्प्रदायगत भाग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी नियत में भी कोई |शका नहीं की जा सकती। अत: में जन विद्या के विद्वानों से नम्र निवेदन | कगा कि येणान्तचित्त से उनके प्रयत्नों की मुल्यवत्ता को समझे और अपने पाना रमल Muh; - डॉ. 1100: जे. . M.WIK. No. 3. Ch.Dec (153 Dark: . 310) में | .. 5 ५।३वतन :11मश. - 5 . 2 33 से 250 -- तुलसी पक्षा

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