Book Title: Jain Agam aur Prakrit Bhasha Vigyan ke Pariprekshya me Ek Parishilan Author(s): Shantidevi Jain Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 3
________________ जैन आगम और प्राकृत : भाषा-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में एक परिशीलन | ४२५ ०००००००००००० ०००००००००००० SURES Sawal ALTRA ... ... KARI UMIHIT तथा मध्य पूर्व की पुरानी फारसी, पूर्व की संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश, हिन्दी, पंजाबी, बंगला, उड़िया, मैथिली, असमिया, गुजराती तथा मराठी आदि भाषाओं का एक ही परिवार है, जिसे भारोपीय कहा जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि कभी इनका केन्द्रभूत स्रोत एक या समान रहा था, जिसका इन भाषाओं के रूप में आज हम वैविध्य देख रहे हैं । तभी तो समुद्रों पार के व्यवधान के बावजूद हम उनके भीतर एक आश्चर्य कर समरसवाहिता पाते हैं । इस सन्दर्भ में हम केवल एक उदाहरण उपस्थित कर रहे हैं-संस्कृत का पितृ शब्द ग्रीक में पेटर (Pater) लैटिन में भी पेटर (Pater), फारसी में पेटर व अंग्रेजी में फादर (Father) दूसरी ओर इसी देश में प्रसूत, प्रसृत एवं प्रचलित कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयालम, तुलु, कुडागु, टोडा, कोंड, कुरूख, कोलामी, ब्राहुई, आदि भाषाओं से संस्कृत आदि का वैसा साभ्य नहीं है क्योंकि ये (तमिल आदि) द्रविड-परिवार की भाषाएँ हैं। यही बात इस देश के कतिपय भीतरी व सीमावर्ती भागों में प्रचलित मुडा भाषाओं के सम्बन्ध में है, जो आग्नेय परिवार की हैं। भारोपीय परिवार की एक शाखा आर्य-परिवार है, जिसका क्षेत्र मध्य एशिया से लेकर ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, समग्र उत्तरी भारत तथा बंगलादेश तक फैला हुआ है । प्राकृत इसी शाखा--आर्य-परिवार की भाषा है। प्राकृत का उद्गम साधारणतया यह मान्यता रही है कि प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से है। सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य हेमचन्द्र ने अपने द्वारा रचित व्याकरण सिद्धहैम शब्दानुशासन के अष्टम अध्याय के प्रारम्भ में, जो उनके व्याकरण का प्राकृत सम्बन्धी अंश है, प्राकृत की प्रकृतियाँ उद्भव के विषय में लिखा है-"प्रकृतिः संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम्' अर्थात् प्राकृत की प्रकृति-उद्गम-स्रोत संस्कृत है । प्राकृत-चन्द्रिका, षड्भाषा-चन्द्रिका, प्राकृत-संजीवनी आदि में इसी सरणि का अनुसरण किया गया है । इसी प्रकार दशरूपक (सिंहदेवगणिरचित) तथा वाग्भटालंकार की टीका में भी विवेचन हुआ है। प्राचीन विद्वानों में सुप्रसिद्ध अलंकार शास्त्री श्री नमि साधु आदि कुछ ऐसे विद्वान् हैं, जो उपर्युक्त मन्तव्य से सहमत नहीं हैं । वे प्राकृत को किसी भाषा से उद्गत न मानकर उसे अन्य भाषाओं का उद्गम-स्रोत मानते हैं। श्री नमि साधु ने प्राकृत शब्द की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है। वे । लिखते हैं-"प्राक् कृतम्-पूर्व कृतम् = प्राकृतम्, बालमहिलादि सुबोधम्, सकल भाषा निबन्धनभूतं वचन मुच्यते ।" अर्थात् इस भाषा का नाम प्राकृत इसलिए है कि पहले से--बहुत पहले से-अति प्राचीन काल से यह चली आ रही है। इसे बालक, स्त्रियाँ आदि सभी सरलता से समझ सकते हैं । यह सब भाषाओं का मूल या आधार है। वे आगे लिखते हैं-"मेघ निर्मुक्त जलमिवैक-स्वरूपं तदेव विभेदानाप्नोति ।" अर्थात् बादल से छूटा हुआ जल वस्तुतः एक स्वरूप होता हुआ भी जहाँ-जहाँ गिरता है, तदनुसार अनेक रूपों में परिवर्तित हो जाता है । वही बात इस भाषा के लिए है। नमि साधु आगे इसी संदर्भ में संस्कृत की भी चर्चा करते हैं । वे लिखते हैं-"पाणिन्यादि-व्याकरणोदित शब्द लक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।" अर्थात् पाणिनि आदि द्वारा रचित व्याकरणों के नियमों से परिमार्जित या संस्कार युक्त होकर वह (प्राकृत) संस्कृत कहलाती है। उपर्युक्त वर्णन के अनुसार प्राचीन विद्वानों के दो प्रकार के अभिमत हैं । हेमचन्द्र का निरूपण : समीक्षा आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत की प्रकृति या उद्भव-उत्स के सम्बन्ध में जो लिखा, उसके पीछे उनका सूक्ष्म अभिप्राय क्या था, इस पर विचार करना होगा। हेमचन्द्र जैन परम्परा के आचार्य थे। जैन आगमों में आस्थावान थे। वे ऐसा कैसे कह सकते थे कि प्राकृत संस्कृत से उद्भूत है। क्योंकि जैन शास्त्र ऐसा नहीं मानते । उन (हेमचन्द्र) द्वारा प्रणीत काव्यानुशासन व (उस पर) स्वोपज्ञ टीका का जो उद्धरण पीछे टिप्पणी में दिया गया है, उससे जैन परम्परा का अभिमत स्पष्ट है। । Pu/ valISTRATAKA NONYPage Navigation
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