Book Title: Jain Agam aur Prakrit Bhasha Vigyan ke Pariprekshya me Ek Parishilan
Author(s): Shantidevi Jain
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ जैन आगम और प्राकृत : भाषा-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में एक परिशीलन | ४२६ 000000000000 ०००००००००००० HOTO ANNA AILE ... ... PROGRA फ्रान्स के पर्यटक दुध इल द रां थे । कतिपय भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने उन लेखों पर कार्य किया । अन्ततः यह प्रमाणित हुआ कि वह प्राकृत में लिखा हुआ धम्मपद है। भारत के मध्य-भाग तथा पूर्व-भाग में तब प्रायः ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था और उत्तर-पश्चिमी भारत तथा मध्य पूर्व एशिया के कुछ भागों में खरोष्ठी लिपि प्रचलित थी। खरोष्ठी लिपि में लिखा हुआ होने से यह प्राकृत-धम्मपद खरोष्ठी धम्मपद भी कहा जाता है। इसका समय ईसा की दूसरी शती माना जाता है। इसमें जो प्राकृत प्रयुक्त है, भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश से सम्बद्ध प्रतीत होती है। निय प्राकृत निय एक प्रदेश का नाम है, जो चीनी तुर्किस्तान के अन्तर्गत है । वहाँ ई० सन् १६००-१९१४ के मध्य खरोष्ठी लिपि में कुछ लेख मिले । प्राप्तकर्ता ऑरेल स्टेन नामक विद्वान् थे। अनेक विद्वानों ने इन लेखों का बारीकी से अध्ययन किया । अन्ततः सुप्रसिद्ध भाषा-शास्त्री श्री टी० बरो ने इनका भाषात्मक दृष्टि से गम्भीर परिशीलन करने के पश्चात् इन्हें प्राकृत-लेख बताया। इनमें प्रयुक्त प्राकृत भी प्रायः भारत के पश्चिमोत्तर-प्रदेश से सम्बद्ध जान पड़ती है। लेख प्राप्ति के स्थान के आधार पर इसकी प्रसिद्धि 'निय प्राकृत' के नाम से हुई । इसका समय ई० तीसरी शती माना जाता है। इस क्रम में अब वे प्राकृतें आती हैं, जिनमें अर्द्ध मागधी शौरसेनी आदि हैं। हम अर्द्धमागधी पर विशेष रूप से विचार करेंगे । श्वेताम्बर, जैन-आगम, जो अर्द्धमागधी में संग्रथित हैं मध्यकालीन आर्य-भाषा-काल की एक अमूल्य साहित्य-निधि है। अर्द्ध मागधी अर्द्धमागधी शब्द की व्याख्या दो प्रकार से की जाती है । शूरसेन-प्रदेश (मथुरा-व्रजभूमि से लेकर पश्चिमी उत्तर-प्रदेश का काफी भाग) में शौरसेनी प्राकृत तथा मगध-प्रदेश में मागधी प्राकृत का प्रचलन था। पूर्व भारत के उस भाग की भाषा, जो मागधी और शौरसेनी भाषी क्षेत्रों के बीच की थी आद्धमागधी कहलाई । एक व्याख्या तो यह है । दूसरी व्याख्या के अनुसार वह भाषा जिसमें मागधी के आधे लक्षण मिलते थे, अर्द्धमागधी के नाम से अभिहित हुई । मागधी के मुख्य तीन लक्षण हैं १. मागधी में तालव्य श मूर्धन्य ष और दन्त्य स–तीनों के स्थान पर या सर्वत्र तालव्य श का प्रयोग होता है। २. र के स्थान पर ल होता है। ३. अकारान्त शब्दों की प्रथमा विभक्ति के एक वचन का प्रत्यय ए होता है। मागधी के ये तीन लक्षण अद्धमागधी में पूरे घटित नहीं होते, आधे घटित होते हैं । जैसे१. अद्धमागधी में तालव्य श का प्रयोग नहीं होता। २. र के स्थान पर ल का कहीं-कहीं प्रयोग होता है। ३. अकारान्त शब्दों की प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्रायः ए प्रत्यय प्रयुक्त होता है। यों 'ए' के प्रयोग की प्रायः पूरी तथा ल के प्रयोग की आधी व्यापकता अद्धमागधी में है । अर्थात् मागधी के तीन लक्षणों का लगभग अर्द्ध अंश इस पर लागू होता है इसलिए इसकी संज्ञा अर्द्धमागधी हुई। सामान्यत: अर्द्धमागधी की निम्नांकित पहचान है १. इसमें तालव्य श, मूर्धन्य ष तथा दन्त्य स-तीनों के लिए केवल दन्त्य स का ही प्रयोग होता है । शौरसेनी तथा महाराष्ट्री में भी ऐसा ही है। २. दन्त्य वर्ण अर्थात् तवर्ग आदि मूर्धन्य वर्ण टवर्ग आदि के रूप में प्राप्त होते हैं। ३. दूसरी प्राकृतों में प्रायः स्वरों के मध्यवर्ती स्पर्श (कवर्ग से पवर्ग तक के ) वर्ण लुप्त हो जाते हैं-वहाँ अर्द्धमागधी में प्राय: 'य' श्रुति प्राप्त होती है। ४. सप्तमी विभक्ति-अधिकरण कारक में इसमें ए और म्मि के सिवाय अंसि प्रत्यय का भी प्रयोग पाया जाता है। IMAL २. दन्त्य व - -... S. R:

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12