Book Title: Jain Agam Auppatik Sutra ka Sanskrutik Adhyayan Author(s): Agarchand Nahta Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 5
________________ जैन आगम-प्रौपपातिक सूत्र का सांस्कृतिक अध्ययन १२५ रोचक एवं उपदेशक । वे उस समय के लोकजीवन का अच्छा चित्र उपस्थित करती हैं। सातवें उपासक दशांगसूत्र भी विविध दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसमें दी हुई भगवान् महावीर के दस श्रावकों की जीवनी से तत्कालीन धर्म जिज्ञासा, जीवन की आवश्यकताओं, समृद्धि, गोधन, विविध व्यापार, गोशालक आदि के अनेक प्रसंग, उस समय के सांस्कृतिक चित्र उपस्थित करते हैं। इसी प्रकार अन्तकृतदशांग व अनुत्तरोपातिक सूत्रों में भी महान साधकों की उज्जवल जीवनी है। उनमें से बहुत से व्यक्ति ऐतिहासिक भी हैं। प्रश्न व्याकरण नामक दसवें उपलब्ध अंग सूत्र में, अहिंसा, सत्य, औचर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पांच पाश्रवों एवं दया सत्य आदि पांच सवर आदि के अनेक पर्यायवाची नाम, हिंसादि करने के साधन-सामग्री का वर्णन महत्व का है शब्द कोष और सांस्कृतिक दृष्टि से यह ग्रन्थ बड़े काम का है । ग्यारहवें-विपाक सूत्र अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम बताने वाली कथानों का संग्रह है इससे तत्कालीन दंड व्यवस्था, लोक जीवन प्रादि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इन ग्यारह अंग सूत्रों का थोड़ा सा सांस्कृतिक महत्व दिखाते हुए अब हमें प्रथम उपांग-प्रोपपातिक सूत्र के सांस्कृतिक महत्व का संक्षिप्त विवरण देंगे। औपपातिक सूत्र का आधे से अधिक भाग वर्णनों के संग्रह रूप में है। इसलिये सांस्कृतिक दृष्टि से यह सूत्र बहुत ही मूल्यवान है । इसमें नगर, चैत्य, वनखंड, अशोकवृक्ष, पृथ्वी शिलापट्ट, राजा रानी उपस्थान व अट्टणशाला, भगवान् महावीर और उनका शिष्यवर्ग, चम्पानगरी के महाराज कोणिक, उनकी राजसमा का वर्णन इतना सजीव हैं कि उनको पढ़ते ही उनका एक चित्र सा सामने खड़ा हो जाता है। उस समय के नगर में क्या २ विशेषतायें होती थीं? चैत्य कैसे होते थे ? राजा और राज सेवकों का व्यवहार, राजा का प्रभुत्व, राजा के शारीरिक व शासनिक नित्य कार्य, जनता में महापुरुषों के दर्शन की उत्सुकता उनके पधारने पर प्रानन्द का वातावरण, धर्मोपदेश सुनकर प्रसन्नता की अनुभूति, राजा की सवारी, उसकी सभा, तीर्थङ्कर के समोसरण प्रादि के अनेक चित्र सामने आ उपस्थित होते हैं । भगवान् महावीर के शरीर और उनके गुणों का, उदाहरण एवं उपमा सहित जैसा सुन्दर निरूपण इस ग्रंथ में है, अन्यत्र नहीं मिलता। उनके शिष्य समुदाय और तपस्वी जीवन का एवं तत्कालीन परिव्राजक, आजीविक, वानप्रस्थ तापस, श्रमण आदि का विशद् वर्णन भी उल्लेखनीय है। प्रसंगवश चार प्रकार की कथायें, नव विहाई, पाठ मंगल, पांच अभिगम, पांच राजचिन्ह, बहत्तर कला, नव अंग, अठारह भाषा, चार प्रकार का आहार, बाह्याभ्यन्तर तप भेद, चार गतियों के चार चार कारण, अरणगार 'धर्म' और श्रावक धर्म के १२ भेद, सात निन्हव विविध प्रकार के पुष्प अलंकार, अनेक प्रकार के तपस्वियों आदि के महत्वपूर्ण विवरण इस सूत्र में मिलते हैं साथ ही असुरकुमार, भुवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक देवों और सिद्धशिला, सिद्ध गति, समुद्धात प्रादि का भी अच्छा वर्णन दिया गया है। राजा-रानी के विवरण में विदेशों की दासियों का जो विवरण दिया गया है उससे उस समय भारतवर्ष में अन्य कौन कौन से देशों की स्त्रियों, रानियों व सेठानियों की सेवा में रहती थी, इसकी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है । सूत्र पाठ इस प्रकार है ___ "बहूहिं खुज्जाहि चिलाईहिं, (वामणीहिं वडभीहिं बब्बरोहिं पउयासियाहिं जोणियाहिं) पण्हवियाहि इसिगिणीयाहिं वासिइणियाहिं लासियाहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमिलीहिं प्रारबीहिं पुलदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुडीहिं सबरियाहिं पारसीहिं णाणादेसी विदेस परिमंडियाहिं इगिय चितिय पत्थिय विजाणियाहिं" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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