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जैन आगम-औपपातिक सूत्र का सांस्कृतिक अध्ययन
भारतवर्ष संतों की साधना भूमि है । ऋषियों की चिंतन भूमि है । वीरों एवं सतियों का जीवनोत्सर्ग तीर्थ है । अनेक महापुरुषों ने समय-समय पर इस पवित्र भूमि में जन्म ले कर अपनी आत्मा का चरम आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष किया, उन्नति की ओर जनता को सत्पथ प्रदर्शित किया। प्राचीनकाल में अध्ययन अध्यापन प्रायः मौखिक ही अधिक हया करता था इसलिए बहत से महापुरुषों की अनुभूतिरूप वाणी आज हमें प्राप्त नहीं है। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतवर्ष ने जो उन्नति की उसका, भी लेखा-जोखा बतलाने वाला प्राचीन साहित्य अधिकांश लुप्त हो चुका है। प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों में उन ग्रंथों से पूर्ववर्ती जिन ग्रन्थकारों व पुस्तकों का नाम उल्लिखित मिलता है उनमें से अधिकांश ग्रन्थ अब प्राप्त नहीं हैं। इसी से हम अपनी प्राचीन साहित्य-संपदा को कितना अधिक खो चुके हैं इसका सहज ही पता चलता है। लेखन-कला का समुचित विकास होने के बाद भी बहत बड़ा साहित्य नष्ट हो चुका है।
भारत की दो प्राचीन संस्कृतियां विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-एक वैदिक दूसरी श्रमण । वैदिक संस्कृति सम्बन्धी प्राचीन साहित्य वेद आदि उपलब्ध हैं पर श्रमण संस्कृति का इतना प्राचीन साहित्य उपलब्ध नहीं है; जैसा कि बहुत से विद्वानों का मत है कि यदि वैदिक-आर्य बाहर कहीं से प्राकर भारत में बसे हैं तो उससे पहले भारत में अनार्य एवं श्रमण संस्कृति के अस्तित्व का पता चलता है। श्रमण संस्कृति में सम्भव है पहले और भी कई धाराए हों, पर वर्तमान में बौद्ध और जैन ये दो धाराएं ही प्रसिद्ध हैं । इनमें से बौद्ध धर्म तो गौतमबुद्ध के द्वारा अब से २५०० वर्ष पूर्व ही प्रवर्तित हुआ पर जैन धर्म के अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर बुद्ध के समकालीन थे, अत : प्राचीन है । उससे पूर्व २३ तीर्थङ्कर और हो चुके हैं जिनमें से पार्श्वनाथ को तो सभी विद्वान ऐतिहासिक महापुरुष मानते हैं और उनके चातुर्याम धर्म का बौद्ध ग्रन्थों में निग्रन्थ धर्म के रूप में उल्लेख है। पार्श्वनाथ के पूर्ववर्ती भगवान् नेमिनाथ-पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे । अतः उन्हें भी कई विद्वान् ऐतिहासिक मानने लगे हैं। भगवान् ऋषभदेव, जो जैन धर्म के अनुसार इस अवसर्पणी काल के प्रथम तीर्थङ्कर थे, उनके बड़े पुत्र भरत के नाम से इस देश का नाम 'भारत' प्रसिद्ध
आ और जिनकी बड़ी पुत्री ब्राह्मी के नाम से भारतवर्ष की प्राचीन लिपि का नाम 'ब्राह्मी' पड़ा। उन ऋषभदेव को भागवत पुराण में एक अवतारी पुरुष के रूप में मान्य किया गया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में प्राप्त ध्यानस्थ नग्नमूर्तियां जैन धर्म से सम्बन्धित होना अधिक संभव है।
जैन धर्म के प्रचारक--तीर्थङ्कर सभी इसी भारत भूमि में हए और उनका जन्म, प्रव्रज्या, केवलज्ञान प्राप्ति और मोक्ष यावत् संपूर्ण जीवन भारत में ही बीता और विशेषकर उत्तर-पूर्व, प्रदेश में । इससे जैन धर्म भारत का बहुत प्राचीन धर्म सिद्ध होता है। भगवान् महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों की वाणी आज उपलब्ध नहीं है। पर कई विद्वानों का मत है कि भगवान महावीर के समय जो चौदह पूर्वो का ज्ञान था वह संभवत: भगवान् पार्श्वनाथ की ही वाणी हो । भगवान् महावीर ने १२।। वर्षों तक कठोर साधना करके कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया और तीस वर्ष तक सर्वज्ञ के रूप में सर्वत्र विचरण करते रहे । उन्होंने समय-समय, एवं स्थान-स्थान पर भव्य जीवों के कल्याण के लिये जो कुछ उपदेश दिया वह
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श्री अगरचन्द नाहटा
उनके प्रधान शिष्य--गणधरों ने द्वादशाङ्गी के रूप में ग्रथित कर लिया, जिसे 'गणिपिटक' कहा जाता है। लंबे दुर्भिक्ष तथा मनुष्यों की ह्रसमान-स्मृति आदि के कारण चौदह पूर्व और बारहवें अंग दृष्टिवाद सूत्र का एवं ज्ञान भगवान महावीर से दौ सौ वर्ष के भीतर ही भद्रबाहु स्थलिभद्र से विछिन्न हो गया और उसके कुछ काल बाद तक दस पूर्वो का ज्ञान रहा था, वह भी ब्रज स्वामी के बाद नहीं रहा । इसलिए वीर निर्वाण के १८० वर्ष बाद जब जैन आगम देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण ने वल्लभी नगरी में लिपिबद्ध किये, तब केवल ग्यारह अग सूत्र और कुछ अन्य ग्रन्थ ही बच पाये थे, जिनके नाम नंदी एवं पक्षीसत्र में पाये जाते हैं।
एकादश अंग सूत्रों में भी अब मूल रूप, में उनके जितने परिमाण का उल्लेख चौथे अंग सूत्र-समवायांग में मिलता है, प्राप्त नहीं है । समवायांग में बारहवें दृष्टिवाद--अग सूत्र का विस्तृत विवरण है, चौदह पूर्व उसीके अन्तर्गत माने गये हैं । दृष्टि वाद बहुत लम्बे अर्से से नहीं मिलता। पर दसवां अंग प्रश्नव्याकरण न मालूम कब लुप्त हो गया। समवायांग और नंदीसूत्र में 'प्रश्नव्याकरण' के विषयों का विवरण दिया है, वह वर्तमान में प्राप्त 'प्रश्नव्याकरण' में नहीं मिलता है । इससे मालूम होता है कि पागम लेखन के समय तक 'प्रश्न व्याकरण' मूलरूप में प्राप्त होगा पर उसके बाद उस सूत्र में मन्त्र विद्या, प्रश्न विद्या का विवरण होने से अनधिकारियों के द्वारा उसका दुरुपयोग न हो, यह समझ कर किसी बहुथ त प्राचार्य ने उसके स्थान पर पांच पाश्रव और पांच संवर द्वार वाले सूत्र को प्रचारित कर दिया। ग्यारह अंग सूत्रों का भी जो परिमाण समवायांग आदि में लिखा है उससे वर्तमान में प्राप्त उसी नाम वाले अंगसूत्र बहुत ही कम परिमाण वाले मिलते हैं । जिस प्रकार आचारंग के पदों की संख्या १८००० हजार, सूत्रकृतांग की ३६०००, स्थानांग की ७२०००, समवायांग की १४०,०००, और व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवत्ती) की ८४००० पदों की संख्या बतलाई गई है उनमें से प्राचारांग २५२५, सूत्र कृतांग २१००, स्थानांग ३६००, समवायांग १६६७, भगवती १५७५२ श्लोक परिमित ही प्राप्त हैं । यद्यपि समवायांग में उल्लिखित पद के परिमाण के संबंध में कुछ मतभेद हैं फिर भी यह तो निश्चित है कि उपलब्ध पागम, मूलरूप से बहुत कम परिमारण वाले रह गये हैं। छठे 'ज्ञाताधर्म कथा' में साढ़े तीन करोड़ कथाओं के होने का उल्लेख 'समव.यांग' में है, उनमें से अब केवल प्रथम श्रुतस्कंध की १६ कथाएं ही बच पाई हैं। द्वितीय स्कंध जो बहुत आख्यायिको और उपपाख्यायिकाओं का भंडार था, वह भी अब लुप्त हो चुका है। दिगम्बर सम्प्रदाय में आगमों के नाम और विषय तो वही मिलते हैं पर उनकी पद संख्या या परिमाण और भी अधिक बताया गया है । खैर, जो चीज लुप्त या नष्ट हो गई. उसके सम्बन्ध में तो दुःख ही प्रकट किया जा सकता है अन्य कोई चारा नहीं है। पर सबसे ज्यादा दुःख की बात है कि जो कुछ प्राचीन जैन प्राकृत वाङमय उपलब्ध है उसका भी पठनपाठन जिस गहराई से किया जाना अपेक्षित है, नहीं हो पा रहा है इसके प्रधान दो कारण हैं--जैन मु श्रावकों के लिये वे ग्रन्थ श्रद्धा के केन्द्र हैं अतः परम्परागत जिस तरह उनका वाचन एवं श्रवण होता पाया है, करते रह कर ही वे अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं और जैनेतर विद्वानों का ध्यान इस ओर इसलिए नहीं जाता कि उनकी यह धारणा बन गई है कि इन ग्रंथों में जैन धर्म का ही निरुपण है, इसलिए उनका ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक महत्व विशेष नहीं है। पर वास्तव में यह धारणा उन ग्रथों के गम्भीर अध्ययन के बिना ही बना ली गई है। अन्यथा बौद्ध साहित्य की भांति इन प्रागमदि का भी परिशीलन होना चाहिये था। १. इन पूर्व संज्ञक श्रुतज्ञान पर आधारित कुछ अन्य कषाय पाहुड़ादि १ मिलते हैं ।
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साहित्य, समाज का प्रतिबिम्ब है । जिस काल में जिस ग्रन्थ को रचना होती है, उस ग्रन्थ में उस समय के जीवन की झलक प्रा ही जाती है । प्राचीन जैन आगम, भगवान् महावीर की वाणी का संकलन है । भगवान् महावीर ने अपना उपदेश अपने विहार क्षेत्र के अधिकाधिक लोगों की जनभाषा में दिया था । इसीलिये उसका नाम अर्धमागधी रखा गया । इस प्राचीन साहित्य में भगवान् महावीर के समय के देश प्रदेश, ग्राम, नगर, राजा, रानी, मन्त्री, सेठ, विद्वानों आदि के अनेक ऐतिहासिक प्रसंग एवं उस समय के लोक जीवन के वास्तविक चित्र प्राप्त होते हैं । सांस्कृतिक दृष्टि से इन ग्रन्थों का अध्ययन करने से भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास और संस्कृति सम्बन्धी अनेकों महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आवेंगे ।
बौद्ध साहित्य की अपेक्षा जैन साहित्य के अध्ययन का महत्व इसलिये और भी बढ़ जाता है क्योंकि जैन साहित्य की परम्परा २५०० वर्षों से अविछिन्न रूप से चली आ रही है । प्रागमों पर समय समय पर नियुक्ति, भाष्य चूरिण, एवं विस्तृत टीकाएँ रची जाती रही हैं और उनमें उन टीकाकारों ने अपने अनुभव एवं मौखिक श्रुत परम्परा और अन्य साहित्य से प्राप्त हुए ज्ञान का बहुत सुन्दर रूप से उपयोग किया है। नियुक्ति, माष्य एवं चूरिण में जो श्रागम काल के बाद की है, अनेक सांस्कृतिक प्रसंग उल्लिखित हैं । भगवान् महावीर के कुछ शताब्दी बाद जैन मुनियों के जीवन में कितने विषम प्रसंग उपस्थित हुए और उस समय उन्होंने अपने प्रचार एवं जैन धर्म को किस तरह सुरक्षित रखा, इसका बहुत ही विशद वर्णन छेद सूत्र एवं उनकी भाष्य चूर्णि में मिलता है । आचार्य कालक और शकों के भारत श्रागमन का प्रसंग निशीथ चूरिण आदि में लिखा मिलता हैं जो भारत के ऐतिहासिक अन्धकार को मिटाने के लिये उज्जवल प्रकाश है ।
आगमों की टीकाओं के अतिरिक्त मौलिक ग्रन्थ भी बराबर रचे जाते रहे हैं । उन सबके आधार से भारत के इतिहास और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण तथ्य निकाले जा सकते हैं। जबकि बौद्ध साहित्य की परम्परा भारत में कुछ शताब्दी चलकर ही लुप्त हो गई। उनके मध्यकाल के जो थोड़े से ग्रन्थ मिलते हैं, वे बौद्ध न्याय के होने के कारण उनसे दार्शनिक उथल-पुथल का ही थोड़ा पता चल सकता है पर सांस्कृतिक सामग्री अधिक नहीं मिल सकती । दसवीं शताब्दी के बाद भारत में रचा हुआ बौद्ध साहित्य प्रायः नही मिलता क्योंकि बौद्ध धर्म का प्रचार तब भारत के बाहर होने लग गया था जबकि जैन धर्म भारतवर्ष में ही सीमित रहा; इसलिये मध्यकालीन ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक सामग्री के रूप में जैन साहित्य अधिक मूल्यवान है ।
जैन आगम साहित्य प्राकृत भाषा में है और उसी भाषा से आगे चलकर अपभ्रंश का विकास हुआ । अपभ्रंश में भी सबसे अधिक साहित्य निर्माण जैन विद्वानों ने ही किया है। अपभ्रंश भाषा से ही उत्तर भारत की समस्त प्रान्तीय बोलियां निकली हैं। इसलिये भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी जैन साहित्य का महत्व सर्वाधिक है । बहुत से शब्दों के मूल का पता लगाने में जैन साहित्य ही सबसे अधिक सहायक हो सकता है । जैन आगमों आदि में प्रयुक्त अनेकों शब्द प्राज भी प्रान्तीय बोलियों में ज्यों के त्यों या सामान्य परिवर्तन के साथ प्राप्त हैं । फिर समय समय पर उन शब्दों व व्याकरण के रूप किस तरह परिवर्तित होते गये । इसकी भी पूरी जानकारी जैन साहित्य से भलीभाँति मिल सकती है । बहुत से देशी शब्द जिनकी उत्पत्ति संस्कृत कोष एवं व्याकरण में ठीक नहीं मिल सकती, उनका प्राचीन रूप व परिवर्तित रूप भी जैन साहित्य के आधार से जाना जा सकता है । प्रान्तीय भाषा में केवल उत्तर भारत की ही नहीं पर दक्षिण
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श्री अगरचन्द नाहटा भारत की कन्नड़ व तामिल में भी जन विद्वानों के प्रचुर ग्रन्थ हैं। गुजराती, राजस्थानी में जैन साहित्य सर्वाधिक है ही, पर हिन्दी में भी कम नहीं है । थोड़ा बहुत मराठी, सिंधी, पंजाबी व बंगला भाषा में भी है। जैन यति-मुनि धर्म प्रचारार्थ भारत के प्रायः सभी प्रदेशों में घूमते रहें हैं इसलिए उनकी रचनाओं में अनेक प्रान्तों की बोली व शब्दों का समावेश मिलता है। लोक-भाषाओं की भांति लोकगीत एवं कथानों आदि को भी जैन विद्वानों ने खूब अपनाया। आगम साहित्य से लेकर नियुक्ति, भाष्य चूणि, टीका एवं कथा तथा प्रौपदेशिक ग्रन्थों एवं प्रबन्धसंग्रह आदि में सैकड़ों लोककथायें मिलती हैं। इसी प्रकार विविध काव्य रूपों एवं शैलियों को भी जिस समय जो जहां प्रचलित रही है, प्रायः उन सभी को जैन विद्वानों ने अपनी रचनाओं में समाविष्ट किया। इसीलिये राजस्थानी, गुजराती, हिन्दी के शताधिक 'रचना प्रकार' जैन रचनाओं में देखने को मिलते हैं। जब साधारण जनता का झकाव लोक संगीत की ओर अधिक देखा तो उन्होंने प्रसिद्ध एवं प्रचलित लोक गीतों की तर्ज व शैली में अपनी रास, चौपाई आदि को ढालें बनानी प्रारम्भ की। इससे हजारों लोकगीतों के स्वर एवं प्रारम्भिक पंक्तियां सुरक्षित रह सकी और प्रचुर लोककथाए जीवित रह सकीं।
_ इतने प्रासंगिक निवेदन के पश्चात् में लेख के मूल विषय पर आता हूँ । प्राचीन जैन आगमों में कितने विपुल परिमाण में सांस्कृतिक सामग्री सुरक्षित है इसकी ठीक से जानकारी तो उन ग्रन्थों के अध्ययन से ही प्राप्त की जा सकती है। यहां तो उनके सांस्कृतिक अध्ययन की प्रेरणा देने के लिये सामान्य दिशानिर्देश ही किया जाता है।
प्रथम अंग सूत्र-आचारांग में यद्यपि प्रधानतया जैन मुनियों के प्राचार का ही निरूपण है पर अंत में भगवान् महावीर की चर्या का जो निरुपण है वह सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर के समय के मत मतान्तरों--क्रियावादी प्रक्रियावादी आदि ३६३ पाखंड़ों का उल्लेख महत्व का है । तीसरा चौथा अंगसूत्र-स्थानांग व समवायांग संख्याक्रम से लिखा हुआ पदार्थ-कोष है । इसमें भौगोलिक, ज्योतिष, वैद्यक, संगीत, बहत्तर कलाएं एवं उस समय के राजादि, तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती,
लदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव के जीवनी के सूत्र तथा व्याकरण प्रादि विषयों का निरुपण साहित्यिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। भगवान् महावीर के समय के पाठ राजाओं के नाम उस समय के इतिहास की दृष्टि से महत्व के हैं। पांचवां भगवती सूत्र भी ज्ञान विज्ञान का भंडार है । इसमें गोशालक, भगवान महावीर के समय के एक बड़े युद्ध, उस समय के पार्श्वनाथ संतानीय व तापसों तथा उदयन राजा, भगवान् महावीर, जमाली आदि अनेक ऐतिहासिक व्यक्तियों के नाम व चरित्र होने के साथ साथ राजगृह के गर्म व ठंडे पानी के कुण्ड, परमारण-पूदगल शक्ति प्रादि अनेक वैज्ञानिक विषय भी प्रश्नोत्तर
रूप में वर्णित है। छठे सूत्र-ज्ञाता धर्म कथाएं उगणीसवें तीर्थकर मल्लिनाथ और पांच पाण्डव पत्नी-द्रौपदी का जीवन चरित्र उल्लेखनीय है । वैसे इसमें बहुत सी दृष्टांत कथाए लोक प्रचलित रहीं होंगी। पर वे हैं बड़ी
१--थोड़ा विवरण डा. जगदीशचंद्र जैन के शोध प्रबन्ध में दिया गया है। २–डा. जगदीशचन्द्र जैन की 'अढाई हजार वर्ष पुरानी कहानियां' पुस्तक जो भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस
से प्रकाशित है।
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रोचक एवं उपदेशक । वे उस समय के लोकजीवन का अच्छा चित्र उपस्थित करती हैं। सातवें उपासक दशांगसूत्र भी विविध दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इसमें दी हुई भगवान् महावीर के दस श्रावकों की जीवनी से तत्कालीन धर्म जिज्ञासा, जीवन की आवश्यकताओं, समृद्धि, गोधन, विविध व्यापार, गोशालक आदि के अनेक प्रसंग, उस समय के सांस्कृतिक चित्र उपस्थित करते हैं। इसी प्रकार अन्तकृतदशांग व अनुत्तरोपातिक सूत्रों में भी महान साधकों की उज्जवल जीवनी है। उनमें से बहुत से व्यक्ति ऐतिहासिक भी हैं। प्रश्न व्याकरण नामक दसवें उपलब्ध अंग सूत्र में, अहिंसा, सत्य, औचर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पांच पाश्रवों एवं दया सत्य आदि पांच सवर आदि के अनेक पर्यायवाची नाम, हिंसादि करने के साधन-सामग्री का वर्णन महत्व का है शब्द कोष और सांस्कृतिक दृष्टि से यह ग्रन्थ बड़े काम का है । ग्यारहवें-विपाक सूत्र अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम बताने वाली कथानों का संग्रह है इससे तत्कालीन दंड व्यवस्था, लोक जीवन प्रादि पर अच्छा प्रकाश पड़ता है।
इन ग्यारह अंग सूत्रों का थोड़ा सा सांस्कृतिक महत्व दिखाते हुए अब हमें प्रथम उपांग-प्रोपपातिक सूत्र के सांस्कृतिक महत्व का संक्षिप्त विवरण देंगे।
औपपातिक सूत्र का आधे से अधिक भाग वर्णनों के संग्रह रूप में है। इसलिये सांस्कृतिक दृष्टि से यह सूत्र बहुत ही मूल्यवान है । इसमें नगर, चैत्य, वनखंड, अशोकवृक्ष, पृथ्वी शिलापट्ट, राजा रानी उपस्थान व अट्टणशाला, भगवान् महावीर और उनका शिष्यवर्ग, चम्पानगरी के महाराज कोणिक, उनकी राजसमा का वर्णन इतना सजीव हैं कि उनको पढ़ते ही उनका एक चित्र सा सामने खड़ा हो जाता है। उस समय के नगर में क्या २ विशेषतायें होती थीं? चैत्य कैसे होते थे ? राजा और राज सेवकों का व्यवहार, राजा का प्रभुत्व, राजा के शारीरिक व शासनिक नित्य कार्य, जनता में महापुरुषों के दर्शन की उत्सुकता उनके पधारने पर प्रानन्द का वातावरण, धर्मोपदेश सुनकर प्रसन्नता की अनुभूति, राजा की सवारी, उसकी सभा, तीर्थङ्कर के समोसरण प्रादि के अनेक चित्र सामने आ उपस्थित होते हैं । भगवान् महावीर के शरीर और उनके गुणों का, उदाहरण एवं उपमा सहित जैसा सुन्दर निरूपण इस ग्रंथ में है, अन्यत्र नहीं मिलता। उनके शिष्य समुदाय और तपस्वी जीवन का एवं तत्कालीन परिव्राजक, आजीविक, वानप्रस्थ तापस, श्रमण आदि का विशद् वर्णन भी उल्लेखनीय है। प्रसंगवश चार प्रकार की कथायें, नव विहाई, पाठ मंगल, पांच अभिगम, पांच राजचिन्ह, बहत्तर कला, नव अंग, अठारह भाषा, चार प्रकार का आहार, बाह्याभ्यन्तर तप भेद, चार गतियों के चार चार कारण, अरणगार 'धर्म' और श्रावक धर्म के १२ भेद, सात निन्हव विविध प्रकार के पुष्प अलंकार, अनेक प्रकार के तपस्वियों आदि के महत्वपूर्ण विवरण इस सूत्र में मिलते हैं साथ ही असुरकुमार, भुवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष, वैमानिक देवों और सिद्धशिला, सिद्ध गति, समुद्धात प्रादि का भी अच्छा वर्णन दिया गया है। राजा-रानी के विवरण में विदेशों की दासियों का जो विवरण दिया गया है उससे उस समय भारतवर्ष में अन्य कौन कौन से देशों की स्त्रियों, रानियों व सेठानियों की सेवा में रहती थी, इसकी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है । सूत्र पाठ इस प्रकार है
___ "बहूहिं खुज्जाहि चिलाईहिं, (वामणीहिं वडभीहिं बब्बरोहिं पउयासियाहिं जोणियाहिं) पण्हवियाहि इसिगिणीयाहिं वासिइणियाहिं लासियाहिं लउसियाहिं सिंहलीहिं दमिलीहिं प्रारबीहिं पुलदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुडीहिं सबरियाहिं पारसीहिं णाणादेसी विदेस परिमंडियाहिं इगिय चितिय पत्थिय विजाणियाहिं"
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इन देशों सम्बन्धी अन्य उल्लेखों के लिए देखें मेरा " जैन साहित्य का भौगोलिक महत्व" नामक लेख जो प्रेमी अभिनन्दन ग्रंथ में प्रकाशित है ।
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बालकों के जन्म समय के संस्कार एवं उनकी शिक्षा दीक्षा का विवरण दृढ़ प्रतिज्ञ के जीवन प्रसंग में इस प्रकार दिया है । कल्पसूत्र तथा अन्य ग्रागमों में भी ऐसे ही वर्णन मिलते हैं जिससे तत्कालीन संस्कृति की जानकारी मिलती है
"तए णं तस्स दारगस्स सम्मापियरो पढमे दिवसे ठियवडिय काहिति बिइय दिवसे चंद सूर दंसरियं काहिति छट्ठे दिवसे जागरियं काहिति एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते णिवित्त सुइजायकम्मकरणे संपत्त े । बारसाहे दिवसे सम्मापियरो इयं एयारूवं गोरणं गुरणणिष्फण्णं णामधेज्जं काहिति --
"जम्हाणं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भत्यंसि चेव समारणंसि धम्मे दढपइण्णा तं होउरणं म्हं दारए दढपणे णामेणं" तएण तस्य दारगस्स सम्मापियरो गाम धेज्जं करेहिंति दढपइति ।
तं दढपइण्णं दारगं प्रम्मापियरो साइरेगठवास जायगं जाणित्ता सोभांसि तिहिकरण (दिवस) क्खत्त मुहुत्तंसि कलायरियस्स उवरोहिति ।
तए गं से कलारिए तं दढपइण्णं दारगं लेहाइयाम्रो गरिणयप्पहारणाओ सउणख्य पज्जवसाणाश्रो बावत रिकला सुत्तो य प्रत्थश्रो य करणो य सेहाविहिइ सिक्खा विहिप्ति (७२ कला नाम) तं जहा- लेहं गणियं रूवं णट्ट गीयं, वाइयं, सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जगवायं पासगं श्रठ्ठावयं पोरेकच्चं दगमट्टियं विहिं (पाणविहि वत्थविहिं विलेवणविहि ) सयणविहि प्रज्जं पहेलियं मागहियं गाहं गीइय सिलोयं हिरण्णजुति ( सुवणजुति गंधजुत्ति चुण्णजुति श्राभरण विहि तरुणीपड़िकम्मं इत्थिलक्खणं पुरिस लक्खणं हलक्खणं गयलक्खणं गोगलक्खणं कुक्कुडलक्खणं चक्कलक्वणं छत्तलक्खणं चम्मलक्खणं दडलक्खणं असिलक्खरणं मणिलक्खणं काकणिलक्खणं वत्युविज्जं खंधारमाणं नगरमाणं वत्थुनिवेसणं ( वूहं पडिवूहं चारं पडिवारं चक्कवूहं गरूलवूहं सगडवूहं जुद्धं निजुद्धं जुद्धाइजुद्धं मुट्ठिजुद्धं बाहुजु लयाजुद्धं इसत्थं छरूप्पवाहं धरणुध्वेयं हिरण्णपागं सुवणपागंड्ड ( ) वट्टखेड्ड सुतखेड्डं नालियाखेड्ड पत्तच्छेज्जं कडवच्छेज्जं सज्जीवं निज्जीवं सउणरूयमिति बावत्तरिकलाओ सेहा विस्ता सिक्खावेत्ता अम्मा पाँ उवहिति ।
)
तणं तस्म दढप इण्णस्स दारगस्स श्रम्मापियरो तं कलायग्यिं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंध मल्लालकारेण य सक्कारेहिति सम्माहिति सक्कारेत्ता सम्मणित्ता विउल जीवियारिहं पीइदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेहिति ।
तए गं से दढपइण्णे दारए वावत्तरिकला पंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अट्टारसदेसी भासा विसारए गीर गंधव्वं कुसले, हयजोही गयजोही रहजोही बाहुजोही बाहुप्पमद्दी वियालचारी साहसिए प्रलंभोग समत्थे यावि भविस्सई ।"
गंगाकूल के वानप्रस्थ तापसों का अच्छा विवरण देते हुये सन्निवेश के परिव्राजक के सम्बन्ध में लिखा गया है कि आठ ब्राह्मण परिव्राजक और प्राठ क्षत्रिय परिव्राजक हुये और उन्होंने वेद प्रादि ब्राह्मण शास्त्रों को पढ़ा- यह विवरण भी महत्व का होने से नीचे दिया जा रहा है। इससे परिव्राजकों के प्रकार उनके नाम, एवं ब्राह्मण शास्त्रों का अच्छा परिचय मिलता है ।
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" से जे इमे जाव सन्निवेसेसु परिव्वाया भवंति तं जहा ईखा जोगी काविला भिउब्वा हंसा परमहंसा बहुउदगा कुडिब्वया कण्हपरिव्वायया । तत्थ खलु इमे भ्रट्ट माहण परिव्वायया भवंति । तंजहा --
ब्राह्मणपरिव्राजक
क्षत्रिय परिव्राजक
कपणे १ य करकण्टे य अंबडे 3 य परासरे ४ 1 कण्हे * दीवायणे चैव देवगुप्ते य नारए ॥१॥
तत्थ खलु इमे भ्रट्ठ खत्तिय-परि-वायया भवंति तं जहा --
सीलाई' ससिहारे (य) नग्गई भग्गई ४ ति य । विदेहे राया रायारामे७ बले" ति य ॥
ते गं परिव्वायया रिउवेद यजुच्वेद सामवेय अहव्वरणवेय इतिहासपंचमाणं णिघण्टु छट्टागं संगोवं गाणं, सरहस्सारणं चउन्हं बेयारणं सारगा पारंगा धारगा वारगा सउगवी सठ्ठितंत विसारया, संखाणे सिक्खाकप्पे वागरण छंदे निरूत्ते, जोइसामयणे असु य ( वसु ) बंभ एसु य सत्थेसु सुपरिगिट्टिया यावि होत्या ।
परिव्राजकों को क्या क्या नहीं करना चाहिये इसका विवरण देते हुए ४ कथाओं व धातु पात्रों एवं आभूषणों का विवरण इस प्रकार दिया है
"तेसि परिव्वायाणं खो कूप्पइ - इत्थिकहा इवा भक्त कहाइवा देख कहाइवा, राय कहाइवा, चोरकहाइ वा जरणवयकहाइवा, प्रणत्थदंड करित्तए ।
"तेसि णं परिव्वायगाणं रणो कप्पइ श्रयपायाणि वा सीसग पायाणि वा रूप्पपायारिणवा सुवणपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि धारितए, एणत्थ लाउपाए वा दारूपाएण वा मट्ठियापाएग वा । तेखि गं परिव्वायगाणं णो कप्पर अय बंधणाणि वा तउ अपबंधणाणि वा तव बंधणाणि वा जाव बहुमुल्लाणि धारितए । तेसि गं परिव्वायगाणं णो कप्पइ णाणविहवण्णरागरत्ताई' वत्थाई धारितए
त्थ एगए धाउरत्ताए । तेसि गं परिब्वायगाणं णो कप्पइ हारं वा अद्धहारं वा एगावलि वा मुत्तावलि वा कणगावलि वा रयणावलि वा मुरवि वा कंठमुरवि वा पालंबं वा तिसरयं वा कडिसुत्त वा दसमुद्धि प्राणतगं वा कडयाणि वा अगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलागि वा मउडं वा चूलामरिंग वा पिणद्धित्तए .....1, अंत में भगवान महावीर का जो वर्णन इस सूत्र में दिया गया है उपसे उद्धृत किया जाता है। इससे भगवान महावीर की विशेषताओं की सांस्कृतिक झलक बहुत अच्छे रूप में मिल जाती है ।
" रहा जिणे केवली सत्त हत्थुस्सेहे समचउरंस संठारण संठिए वज्ज रिसहनारायसंघयणे श्ररपुलोमवावेगे कंकरगहणी कवोयपरिणामे सउनि पपि तरोरूपरिणए पउमुप्पलगधसरिस निस्सास सुरभिवयणे छवी निरायंक उत्तमपसत्थ प्रइसेयनिरूवमपले जलमल कलंक सेयरयदोसविज्जयसरीर निरूवलेवे छाया उज्जोइयंगभंगे धरणमिचियसुबद्धल क्खरगुण्णय कूड़ागार निभपिंडियग्गसिरए सामलिबोडवण निचियच्छोड़ियमिउ विसयपसत्य मुहुमलक्खण सुगंधसुन्दर भुयमोयग भिगनेलकज्जल पट्टि भमर गरगणिद्ध निकुरूबनिचियकुचिय पयाहिणा वत्तमुद्धसिरए दालिम पुष्कप्पगा सतवणिज्जसरिस निम्मलसुद्धि के संतके सभूमी धरण ( निचिय )
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________________ 128 श्री अगरचन्द नाहटा ( ) छत्तागारूत्तमंगदेसे रिणव्वण समलट्ठ मट्टचदद्ध समरिणडाले उडुवइ पडिपुण्ण सोमवयणे अल्लीण पमाणजुत्तासवणे सुस्सवणे पीणमंसल कवोलदेस भाए प्राणामिय चावरूइल किण्ह ब्भराइतगुकसिणणिणेद्धभमुहे अवदालियपुडरीयण यणे कोयासिय धवलपत्त लच्छे गरूलायतउज्जु गणासे उवचिय सिलप्प वालबिबफलसण्णि भाहरो? पंडुर ससिसयल विमल रिणम्मल संख गोक्वीरफेणकुददगरयमुणालिया घवल दंत सेढ़ी अखंड दते अप्फुडियदंते अविरलदते सुरिणद्धदंते सुजायदंते एगदंतसेढ़ी विद प्रणेग दंते हुयवहरिणद्धतधोयतत्त वणिज रततलतालुजी है अद्विय सृविभत्तचित्तमंसू मंसल संठिय पसत्थसदूल विउलहणुए चउरंगुलसुप्पमारण कंबुवर सरिसग्गीवे वर महिस वराहसोह सर्ल उसम नागवर पंडिपुणविउलक्खंघे जुगसन्निभपीण रइयपीवर पउछसुसंठिय सुसिलिद्वि विसठ्ठ घण थिर सुबद्ध संधिपुर घरफलिहवट्टियभुए भुयईसरविउल भोग प्रायाण पलिए उच्छूढ दीहबाहू रत्ततलो वइयमउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थ अच्छिद्दजालपाली पीवरकोमलवरंगुली आर्य बत बत लिण सुइ रूइ लणिद्धणक्खे चंद पाणि लेहे सूरपाणिलेहे संख पाणिलेहे चक्कपाणीलेहे दिसासोत्थिय पाणिलेहे चंदसूर संखचक्क रिसा सोत्यिय पाणिलेहे कणगसिलायलुज्जलपसत्थ समतलउवचियविच्छिण्ण पिहुल वच्छे सिरिवच्छं क्कियवच्छे अकरंडुयकणगरूययनिम्मल सुजायनिरूवयदेहधारी अट्ठ सहस्स पडिपुण्णवरपुरिसलक्खणधरे सण्णयपासे संगयपासे सुन्दरपासे सुजायपासे मियमाइय पीणरइयपासे उज्जुय समसहिय जच्चतणुकसिणरिणद्ध प्राइज्जल डहरमणिउज्जरोमराई झसविहग सुजायपीण कुच्छी झसोयरे सुइकरणे पउमवियडणाभे गंगावत्तगयाहिणावत्ततरंग भंगुर रवि किरण तरूणबोहियप्रकोसायंतपउमगंभीर वियडणा भे साह्यसोणंदमुसलदापणणिकरियवरकरण गच्छरूसरिसवर वइरवलियमझे पमुयइवरतुरगसीहवरवट्टियकडीवरतुरगसुजायसुगुज्झ देसे प्राइण्णं हउव्व णिखवलेवे वरवारणतुन्लविक्कमविलसइयगई गयससणसुजायसन्निभोरू समुग्ग णिमग्गगूढ़ जाणू एणीकुरूविंदावत्त वद्वारणुपुत्वजंघे संठिय सुसिलिट्ठ विसिट्ठगूढगुप्फे सुप्पइठ्ठियकुम्भचारूचलणे अणुपुव सुसंहयंगुलीए उण्णयतरगुतंवरिणद्धणक्खे रत्तुप्लयपत्तमउय सुकुमाल कोमलतले अठ्ठसहस्सवर पुरिसलक्खणधरे नग नगरमगर सागर चक्कंकवंरगमंगलंकियचलणे विसिठ्ठरुवे हुयवहनिद्ध जलियतडितडियतरूणर विकिरणसरिसतेए / ............" दूसरे उपांग ‘राजप्रश्नीय' में सांस्कृतिक सामग्री बहुत अच्छी है उसमें सूर्याभिदेव के 32 प्रकार के नाटक और देवलोक के वर्णन में वहां की रत्नमय पुस्तक का विवरण, तथा अन्य अनेक वर्णन व विवरण बड़े महत्व के हैं। जीवभिगम' और "प्रज्ञापना" सूत्र यद्यपि सैद्धान्तिक विषय के हैं पर उनमें भी अनेक प्रकार के पशु, पक्षी, वृक्ष, भाषा, आदि जीव और जड़ पदार्थों का विवरण महत्व का है। "जम्बूदीप प्रज्ञप्ति" में प्राचीन भूगोल और ज्योतिष की जानकारी महत्व की है और ऋषभदेव का चरित्र, भारत की छः खण्ड साधना का वर्णन बड़ा उपयोगी है। 'चन्द्रप्रज्ञप्ति 'सूर्य प्रज्ञप्ति' से प्राचीन ज्योतिष की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है / 'निरयावली' आदि पंचोपांग में महाराजा कोणिक और चेड़ा के युद्ध का वर्णन उस समय के युद्ध का सजीव चित्र उपस्थित करता है। छ: छेद सूत्र मूनि जीवन में कैसी विषमता आई और उसका परिहार कैसे किया जा सकता है, एक तरह से मुनियों का दण्ड विधान ये शास्त्र है / उनकी भाषा चूणियों में प्रचुर सांस्कृतिक सामग्री है। नंदी और अनुयोगद्वार तो सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत महत्व के हैं जिन पर कभी स्वतन्त्र रूप से प्रकाश डाला जायगा। कल्पसूत्र के स्वप्न आदि के विवरण भी बहुत सुन्दर हैं। 'उत्तराध्ययन' भी बहुत महत्वपूर्ण है जिम में नेमिनाथ तथा गौतम और केशी सम्वाद प्रादि अध्ययन बहुत ही महत्व के हैं। समग्र जैनागम और प्राकृत साहित्य के अवलोकन से भारतीय सस्कति को ठीक से समझने में बहुत मदद मिलती है।