Book Title: JAINA Convention 2011 07 Houston TX
Author(s): Federation of JAINA
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 217
________________ JAINA CONVENTION 2011 जैन धर्म का मूल स्वरुप डॉ. बी. एस. भंडारी, वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं पत्रकार, इंदौर Dean Academics and Resarch at Modern Institute of Professonal Studies Indore. Studied at I.I.F.T.,New Delhi (UNCTAD/GATT) Export Promotion Instructor. Lives in Indore, India. Widowed Knows Hindi, English. From Indore, India, Born on March 8 आत्मा पर विजय जैन धर्म के अनुयायी इस बात को लेकर गौरवान्वित अनुभव कर सकते हैं कि वे ऐसे धर्म के अनुयायी हैं जो प्राणी मात्र की जीवनचर्या को अनुशासित करने में समर्थ है । यह धर्मं की सर्वकालिक और सार्वभौमिक धारणा पर आधारित है । प्रत्येक जीव या प्राणी में आत्मा विद्यमान होती है। इस आत्मा को कर्मों और परिणामों की प्रक्रिया से मुक्त और स्वतंत्र करने ही जैन धर्मं वाली जीवनचर्या को अपनाने के लिए आवश्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य और तप पर जोर देने के कारण ही इसे जैन धर्मं कहा जाता है। आत्मा को वश में रखने के लिए जरूरी बातों को अपना कर आप उसे जीत सकते हैं । यह जीत हांसिल करने वाला 'जिन' कहलाता है । 'जिन' की जीवनचर्या जैन धर्म के रूप में जानी जाती है। आत्मा को वश में रखने को संयम भी कहा जाता है संयम ही जैन धर्म की मूल धारणा है। आत्मा और शरीर "Live and Help Live" मगर यह धारणा समझ में आना तब बहुत कठिन हो जाता है जब हमें आत्मा क्या है यही समझ में नहीं आता है। आत्मा को जीव या प्राण के नाम से हम जरूर जानते हैं और उसका होना या नहीं होना तभी पहचाना जाता है जब वह किसी शरीर के आवरण में होता है। वैसे तो वनस्पति, पशु, पक्षी, मानव और छह काया के विभिन्न रूपों में जीव प्राण या आत्मा होती है, ऐसा हम मानते हैं। प्रत्येक जीव को जो करना चाहिए यह उसका धर्मं है । बहुत से मौकों पर और विभिन्न कारणों से वह ऐसा नहीं कर पाता है। तब उसकी आत्मा पर उसका वश नहीं रहती है और उसे अनेक प्रकार की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है । शरीर केवल शरीर नहीं होता है । उसमे इन्द्रियां भी होती है | इच्छाओं मन मस्तिष्क श्वासोच्श्वास तथा बाहरी पर्यावरण से भी उनका सम्बन्ध होता है, तब आत्मा पर वश रखना मुश्किल हो जाता है। पर्यावरण और आत्मा बाहरी पर्यावरण को संसार कहा जाता है और आत्मा उसीसे अपना सम्बन्ध बना कर समझती है कि वह जीवित है और तभी तक उसका अस्तित्त्व है जबतक वह शरीर में है या शरीर संसार में विद्यमान है | यह सत्य समाज में नहीं आता है कि शरीर से अलग हो कर भी आत्मा रह सकती है । रंग, रूप, आकार, गति के बिना आत्मा को पहचाना नहीं जा सकता | जीवन चर्या में सकारात्मक समायोजन संसार में रहने वाले सभी मनुष्यों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वे अपनी आत्मा को सांसारिक गतिविधियों के प्रभाव से बचा कर अपने जीवन को सार्थक कैसे बनाए ? आत्मा का अस्तित्व तभी तक महसूस होता है जबतक वह शरीर में रहती है और मन, मस्तिष्क, काया और इन्द्रियों से संचालित होती है | जन्म लेना आत्मा का शरीर धारण करना होता है और मृत्यु शरीर का त्याग करना कहलाता है। इन दोनों अवस्थाओं के बीच का समय आयु कहलाता है और प्रक्रिया जीवन | मनुष्य अपने जीवन के लिए केवल स्वयं पर आश्रित नहीं रह सकता | उसे 203

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