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JAINA CONVENTION 2011
त्रिस्तुतिक होने पर जोर देता है। कोई प्रतिदिन मंदिर जाने पर या आरती पूजा करने पर जोर देता है तो कोई सामयिक और प्रतिक्रमण करने पर कोई किसी आचार्य की तो कोई किसी आचार्य की जय बोलता है। कोई रात्रि को भोजन या पानी भी नहीं लेता है तो कोई मांस मदिरा का त्याग करता है तो कोई कंदमूल का | कोई उपवास में अन्न और जल दोनों का त्याग करता है तो कोई केवल गर्म जल से उपवास करता है । कोई मुख्वास्त्रिका के प्रयोग पर जोर देता है तो कोई मोबाइल-फ़ोन, स्वचालित वाहन और विद्युत् उपकरणों का विरोध करता है | तीर्थस्थलों और मंदिरों के आधिपत्य को लेकर संघर्ष चलता रहता है। ऐसे में नई पीढ़ी असमंजस में पड़ जाती है की क्या सही है ? दूसरी और उन अनुयायियों की दुर्गति हो रही है जो जैन धर्मं के मूल स्वरुप में विश्वास रखकर सभी तीर्थंकरों,आचार्यों,साधुओं, तीर्थों, मंदिरों, ग्रंथों, आगमों, पर्वों और पूजा विधियों को समान रूप से सम्मान देते हैं। उनके लिए पर्युषण, दस लक्षण, उपवास, क्षमावाणी, शाकाहार, पर्यावरण रक्षा जीवदय अपरिग्रह सभी जैनियों के लिए हैं । अफ़सोस की बात यह है की ऐसे लोगों को समाज में कोई महत्व नहीं मिलता वे नवकार मंत्र की भावना का पूरा पालन करते हैं फिरभी जैन धर्म की परिधि से बाहर होते जा रहे हैं। आस्तिक होकर भी धर्म से परे
तपस्या,
दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो किसी खास धर्म से जुड़े नहीं है मगर आस्तिक हैं। वे जैन होकर भी जैन नहीं गिने जाते । मुस्लिम होकर भी मस्जिद नहीं जाते हैं | ईसाई होकर भी पादरियों के खिलाफ बोलते हैं | हिन्दू होकर भी मंदिर नहीं जाते और मौका आने पर अन्य धार्मिक स्थलों पर चले जाते हैं। सिख होकर भी साफा नहीं पहनते हैं या केश कटवा कर रहते हैं। ये सभी नास्तिक नहीं है । मगर इन्हें लगता है कि वे धर्म की उन गतिविधियों से बंधना नहीं चाहते जो मात्र आडम्बर है और
"Live and Help Live"
मनुष्यों को अन्य मनुष्यों का शत्रु बनाती हैं। मनुष्य धर्म के मूल स्वरुप की खोज जब तक पूरी नहीं होती , अहिंसा ही सच्चा धर्मं है और यह मानना चाहिए कि “मित्तिमे सव्व भूएसु वैरं मज्ज़म न केणई” | मैत्री पर आधारित सकारात्मक जीवन चर्या मित्तिमे सव्व भूएस की भावना ही जैन धर्म और मनुष्यों कि जीवनचर्या को सकारात्मक स्वरुप प्रदान करती है। इस सृष्टि में जो कुछ भी है उसको मित्र मानकर आचरण करना ही सच्चा धर्मं है । किसीसे भी वैर या शत्रुता नहीं है यह सोचकर ही मनुष्य को अपना व्यवहार करना चाहिए | यदि किसीने आपका अहित किया है या कोई अपराध किया किया है या कष्ट पहुँचाया है तो भी आप उसको बिना मांगे क्षमा कर दे तथा उसके प्रति मित्रवत व्यव्हार करें। सभी जीवों को अपना मित्र समझे और उनकी रक्षा करें। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में समता रखे | भेदभाव न करे। शोषण न करे। चोरी न करे | झूठ न बोलें | परिग्रह न करे | मोह, ममता, वासना, लोभ, लालच, ईर्षा, द्वेष, राग, दमन, दंड, मिथ्यात्व से दूर रहे। इन सभी कारणों से शत्रुता और नकारात्मक समायोजन की प्रवृति बढती है जिसका परिणाम हिंसा होता है । मन, वचन, काया से किसी को भी पहुंचाए - स्वयं या दूसरों के माध्यम से और जो ऐसा करे उसे भी ठीक न समझे । यही जैन धर्मं का मूल स्वरुप है | इसे ही अहिंसा परमोधर्मः कहा गया है । नवकार मंत्र में इसके अनुरूप जीवन व्यतीत करने वाले समस्त व्यक्तियों को चाहे वे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय या साधु हों, मस्कार किया गया है। यह नमस्कार विनय भाव का संचार करता है और मैत्री, करुणा, क्षमा के संस्कार विकसित करता है | परिणामस्वरूप अन्य जीवों को भयमुक्त विचरण करने का अवसर मिलता है और सृष्टि में मैत्री भावना प्रवाहित होती है | किन्तु अफ़सोस यही है कि जैन धर्म
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