Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 4
________________ "इलिभासियाई" सूत्रपरिचय उस के लिये तमाम कर्मों का त्याग करना होगा, चाहे वे पुण्य रूप हो या पाप रूप । धर्म की सुहावनी मोहक छाया से आये हों या अधर्म की काली छाया से । पथिक्र का आदर्श लक्ष्य पर पहुंचना हैं । राह में विगम कहां ! मार्ग फूलों का का हो तो भी चलना है, कांटों का है तब भी चलना है; पर हां, फूलों पर फिसलन है और काटों में चुभन | विश्रान्ति के लिये लक्ष्य पर पहुंचना होगा ! अनन्त युगों के यात्री-आत्मा का शान्ति भवन मोक्ष है, इसीलिए मोक्ष पुरुषार्थ हमारा साध्य है और धर्म उसका साथन । यह निर्वाणवादी दर्शन की भूमिका है, जोकि मानव-मन को स्वर्ग और नरक के फूलों और शूलों से बचाकर पवित्रता के पथ पर अग्रसर करती है । निवृत्तिवादी दर्शनकार ने साधक को प्रेरित किया है तू अपने लक्ष्य की सही दिशा में दृढ़ता से पग धरत जा मार्ग के फूलों और कांटों में तुझे उलझना नहीं है। कांटों में उलझनेवाला यदि गह भूला रही है तो फूलों की मुस्कान में बिंध जानेवाला भी लक्ष्य की ओर कदम बढ़ाने वाला नहीं है। कांटों से बिंधने वाला कम से कम राह को समझता है पर फूलों से बिंधनेवाला राह क्या राही को भी भूल जाता है । इसीलिये कभी कभी फूलों की मधुरिमा को भूला देना कांटों पर चलने से भी कठिन हो जाता है । सूत्रकार ने राग और द्वेष की तुलना में राग को प्रगति की सबसे बड़ी बाधक चट्टान बताया है। राग और द्वेष दोनों पर विजय पाने वाले को इसीलिये तो "वीतराग" कहा किन्तु ध्वय-सिद्धि के लिये हम फूल और कटि दोनों को भूला देना होगा। बेड़ी लोहे की तब भी बन्धन है और सोने की है तब भी बन्धन है, बन्धन तो कहीं नहीं गया है । पर हां, पहली हाथों को बांधती है तो दूसरी हाथों के साथ हृदय को भी बांध लेती । स्वतन्त्रता की हवा में सांस लेने के लिये दोनों को तोड़ फेंकना होगा। किन्तु साथ ही यह भी समझ लेना होगा कि लोहे की बेड़ी चोरी का दंड है तो सोने की कंगन सजनता का उपहार है । लोहे की बेड़ी में पराधीनता की कसक है। किन्तु हां, कभी कभी लोहे के तारों को तोड़ फेंकने बाला रेशमी तारों में बंध जाता है। अनंत गगन में स्वच्छन्द विचरनेवाले बिहग के लिये पिंजरा उसकी उड़ान में बाधक ही है | आरम स्वातंत्र्य के इच्छुक को पुण्य और पाप दोनों से बचना होगा साधक को साधना केवल आत्मशोधन के लिये ही है। उसके मन को न दिव्य लोक की गुलाबी अमा मुग्ध कर रही हो नरक से उसके प्राण कांप रहे हो। इसीलिये शान्ति के अवतार म० महावीर साधक को भय और प्रलोभन से मुक्त रहकर साधना करने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं: __ "नो इह लोगट्टयाए तब महिटिजा, नो पर लोगहयाए तवमहिट्टिज्जा । नो वण्ण-कित्ति सद्द-सिलोगट्टयाए तवाहिट्ठिज्जा ननत्य एगन्त निजरट्टयाए तवमहिहिना | दशवकालिक सूत्र अ० ९, उ० ४, तपसमाधिः । एक शब्द में कहूं तो स्वर्ग और नरक की मय प्रलोभन जन्य छाया से साधक का मानस मुक्त रहे। उसकी तपःसाधना का केन्द्र न यह लोक रहे न परलोक । न यहां के भौतिक पदार्थों को पाने के लिये वह तपःसाधना करे, न अगले लोक में मिलनेवाली स्वर्ग की परियों के लिये ही वह संयम साधना करे । लोक और परलोक की भावना से ऊपर उठकर लोकोत्तर-साधना में प्रवृत्त हो । निवृत्तिवादी दर्शन के पास धर्म की स्वतन्त्र परिभाध है | उस पर उसका अपना निजी चिन्तन है, मनन है। समाज की स्वीकृति ही किसी भी कार्य को धर्म का चोगा नहीं पहना सकती । समाज की हां और ना उसकी अपनी स्वार्थिक एपणाओं की प्रतिध्वनियां हैं । उसका धर्म उसकी परंपराओं के पाश में बद्ध है। जहां तक उसकी सामाजिक लोह शृंखलाओं के बन्धन को मान्य रखकर व्यक्ति चलता है तबतक उसे वह धर्म की संज्ञा देता है, जहां किसी ने उसकी मार्मिक दुर्बलताओं की ओर इंगित किया, तो वह उसे शीघ्रही अधर्म का करार दे देगा । जहां व्यक्तियों का दम घोटनेवाली गली सड़ी रस्सियों को तोड़ने के लिये किसी ने करवट ली, समाज उसे विद्रोही कहेगा उस पर पापी और अधर्मी की मुहर लगा देगा । किसी स्वस्थचेता मानस द्वारा-जिसकी कि दिल दिमाग की खिड़कियां खुली है और

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