Book Title: Isibhasiyam Suttaim
Author(s): Manoharmuni
Publisher: SuDharm Gyanmandir Mumbai

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Page 11
________________ इसि-भासियाई है। बौद्ध साहित्य में बताया गया है कि भगवान बुद्ध ने एक बार भारद्वाज ब्राह्मण से आध्यात्मिक खेती का निरूपण किया था। उसमें श्रद्धा को बीज, तप को वृष्टि और प्रज्ञा को हल बताया गया है) काय संयम बाक्संयम और आहार संयम कृषि क्षेत्र की मर्यादाएँ हैं और पुरुषार्थ बैल है और मन जोत है । इस प्रकार की कृषि से अमृतत्व का फल मिलता है।) एष मेसा कसी कट्टा सा होति अमतपफला । एवं इसी कसित्वान मन लामा पानि ॥ यहां भारमा को क्षेत्र बताया है । वैदिक मंत्रों में भी क्षेत्र शब्द अध्यात्म अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। स्खे क्षेत्रे अनमीषा विराज. -अथवेद. अपने क्षेत्र में अनामय होकर रहो। यह क्षेत्र किसी भी दैहिक या अध्यात्म-व्याधि से क्लिष्ट न हो । अन्यत्र कहा गया है:___ शन्नः क्षेत्रस्य पतिरस्तु शम्भुः । अथर्थ. १६+१०।१० हमारे क्षेत्र का स्वामी या क्षेत्रपति शम्भु कल्याण कर हो । ऋग्वेद के एक मंत्र में क्षेत्र शब्द अध्यात्म अर्थ में बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रयुक्त हुआ है । , अग्रषिक्षेत्रविदं प्राट् सौति क्षेत्रविदानुशिष्टः । । एतद्वै भद्रमनुशासनस्थोत स्तुति विदस्यजसीनाम् ॥ *. १०।३२७ अर्थात्--अक्षेत्रविद् क्षेत्रविद् से आत्मज्ञान के सम्बन्ध में प्रश्न करता है । वह ज्ञानी क्षेत्रज्ञ आत्मविद्या में उसका अनुशासन करता है । उसका उपदेश दोनों के लिये कल्याणकारी होता है । जिससे सर्वत्र उनकी प्रशंसा होती है । यहां आत्मा के लिये क्षेत्रज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है । गीता में भी क्षेत्रज्ञ शब्द आत्मा के अर्थ में ही आया है। इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। एतयो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः । -गीता अ. 1३11 अर्थः हे अर्जुन ! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है । जो इसे जानते हैं उन्हें तत्वज्ञानी क्षेत्रज्ञ कहते हैं। पाणिनि पर- क्षेत्र का अर्थ जन्मान्तर लेते हैं। क्षेत्रियच् परक्षेत्रे चिकित्सः (4) २ १९२) काच्यों में भी क्षेत्र शब्द अध्यात्म अर्थ में आया है योगिनो यं विचिन्वन्ति क्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनम् । अनावृत्तिमयं यस्य पदमाहुर्मनीषिणः ॥ यमक्षरं क्षेत्रविदो विदुस्तमात्मानमारमन्यवलोकयन्तम् ।। पु.मारसंभव ३४५० महाकवि कालिदास अपने कुमारसंभव में आत्मा के लिये क्षेत्रविद् शब्द का प्रयोग करते हैं। जैन सूत्रों में भी क्षेत्रज्ञ शब्द आत्म ज्ञाताके अर्थ में मगवान महावीर का विशेषण बनकर आया है। खैग्रमये से कुसले महेसी, अणंत नाणीय अणंतदंसी। जससिणो चक्खु पहेठियस्स, जाणाहि धम्मच घी च पेहि ॥ वीरस्तुति । ३॥ मिलाइये निम्न गाथा सेएवं किर्सि किसित्ताणं सव्य सत्त दयावह. माहर्ष स्वत्तिए बेइसे सुद्दे वादिय मुच्चति ॥ -इसि-भा. अ. ३२।

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