Book Title: Iryasamiti aur Padyatra
Author(s): Sanjavi Prachandiya
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 2
________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ कैसी स्थिति है ? वह जिस उद्देश्य से जा रहा है, विचारों के विरोधी विषय क्या उसके भावों को गर्त की ओर तो नहीं ले जा रहे हैं ? "ईयायां समितिः ईर्यासमितिस्तया। ईर्या विषये एकीभावेन चष्टे नमित्यर्थः' अर्थात् ईर्या का अर्थ गमन है। गमन विषयक सत् प्रवृत्ति ईर्यासमिति है। ईर्यासमिति की विशुद्ध आराधना व साधना के लिए चार आलम्बनों का ध्यान रखना आवश्यक है- अवस्सिया, काल, मार्ग और यतना। ये चारों आलम्बन/बातें ईर्यासमिति को सम्पुष्ट करने में रामबाण का कार्य करती हैं । साधक की साधना रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु होती है। यही उसका लक्ष्य होता है । वह इस लक्ष्य को पाने के लिए अर्थात् रत्नत्रय (दर्शन, ज्ञान और चारित्र) की अभिवृद्धि के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान को गमनागमन करता है। वह बिना आवश्यक कार्य के उपाश्रय से बाहर नहीं जाता और येन-केनप्रकारेण उसे जाना ही पड़ जाए तो जाने से पूर्व वह अवस्सिया का तीन बार उच्चारण करता है। यह उसकी समाचारी है और इसी को ईर्यासमिति का आलम्बन कहा जाता है। ईर्यासमिति का दूसरा आलम्बन 'काल' कहा जाता है। काल अर्थात् समय । ईर्यासमिति का पालन दिन में हो सकता है रात्रि में नहीं। इसीलिए रात्रि में किया जाने वाला विहार निषेध माना गया है। आचार्यों ने श्रमण का विहार-काल नौ कल्प में बाँटा है। वह चातुर्मास को छोड़कर किसी भी स्थान पर एक मास से अधिक की अवधि नहीं व्यतीत कर सकते हैं । इस प्रकार आठ मास के आठ कल्प और चातुर्मास का एक कल्प, कुल मिलाकर नौ-कल्प की काल-लब्धि का निर्धारण हुआ है। । ईर्यासमिति का तीसरा आलम्बन ‘मार्ग' कहा जाता है । इसे एक चार्ट के द्वारा दर्शाया जा सकता है मार्ग द्रव्य मार्ग भाव मार्ग स्थल मार्ग जल मार्ग नभ मार्ग सम मार्ग विषम मार्ग साधक को सम मार्ग पर चलना चाहिए, विषम मार्ग पर नहीं । विषम मार्ग में चलने से विराधना की सम्भावना रहती है। ऐसे मार्ग पर चलने से प्रायः पथ-भ्रम या दिग-भ्रम हो सकता है जिससे साधक उन्मार्ग की ओर उन्मुख हो सकता है । जिस मार्ग से जाने में मानसिक, वाचिक और कायिक क्लेश की सम्भावना हो सकती है उस मार्ग से भी नहीं जाना चाहिए । जल मार्ग पर चलना भी जैन संस्कृति में मना बताया गया है । प्राणी विज्ञान की दृष्टि से जल की एक बूंद में असंख्य जीव होते हैं और यदि जैन साधु जल-मार्ग से जाते हैं तो असंख्य जीवों की विराधना सुनिश्चित हो जाती है। अतः वे जल मार्ग से नहीं जाते । किन्तु विशेष परिस्थिति में वे जल में जा सकते हैं जैसे वर्षा हो रही हो और मलमत्र के वेग को रोकना सम्भव नहीं हो (क्योंकि उसको रोकने से अनेक रोगों की सम्भावना रहती है तथा २३० | पंचम खण्ड : सांस्कृतिक सम्पदा www.jainel

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