Book Title: Iryasamiti aur Padyatra
Author(s): Sanjavi Prachandiya
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 1
________________ सावारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ ईर्यासमिति और पद-यात्रा -डा. संजवी प्रचण्डिया 'सोमेन्द्र' (एम० काम०, एल-एल० बी०, पी-एच० डी०) शब्दों में अर्थों की अभिव्यंजना हुआ करती है । शब्दों का सही प्रयोग ही उस अर्थ की आत्मा को उजागर करता है। यहाँ हम प्रस्तुत विषय 'ईर्यासमिति और पद-यात्रा' पर चर्चा करना चाहेंगे। प्रस्तुत विषय का शिल्प दो शब्दों के योग का सहयोग है । एक 'ईर्या-समिति' और दूसरा 'पद-यात्रा'। ईर्यासमिति क्या है ? तथा पद-यात्रा से इसका क्या सम्बन्ध है ? क्या उपयोगिता है ? यही जानकारी विषय की अहं स्थिति को उजागर करती है। चलने-फिरने से लेकर बोल-चाल, आहार-ग्रहण, वस्तुओं के उठाव-धराव, मल-मूत्र का निक्षेपण, सफाई-सुथराई आदि तक का समूचा कर्म-कौशल जिसमें प्राणी मात्र किंचित् आहत न हो, बस इसी स्थिति का नाम समिति है। इसीलिए राजवातिक में स्पष्ट' लिखा है-"सम्यगितिः समितिरिति अर्थात् सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति का नाम समिति है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में भी समिति का इस प्रकार से उल्लेख मिलता है, ‘प्राणि पीड़ा परिहारार्थ सम्यगयनं समितिः' अर्थात् प्राणी पीड़ा के परिहार के लिए सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है। श्रमण संस्कृति में समिति के पाँच प्रकार बताये गये हैं यथा "इरिया भासा एसणा जा सा आदाण चेव णिक्खेवो। संजमसोहि णिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ।" अर्थात् ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-निक्षेपणसमिति और प्रतिष्ठापन समिति। इन्हीं समितियों के बीच प्रत्येक प्राणी अपने कर्म-कौशल को हल करता है। यहाँ ईर्यासमिति के विषय में संक्षिप्त विचार करते हुए उसकी पद यात्रा में उपयोगिता क्या है ? पर विचार करेंगे आवागमन के समय मार्ग में विचरण करने वाले किसी भी प्राणी का किंचित् अहित न होने देना ईर्यासमिति कहलाती है। “फासुयमग्गेण दिवा जुवं तरप्पहेणा सकज्जेण । जंतूण परिहरति इरियासमिदी हवे गमणं" अर्थात् प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ प्रमाण देखकर अपने कार्य के लिए प्राणियों को पीड़ा नहीं देते हुए संयभी का जो गमन है, वह ईर्यासमिति है। ईर्या का अर्थ चर्या से है । केवल गमनागमन ही नहीं किन्तु सोना, उठना, बैठना, जागना आदि सभी प्रवृत्तियाँ ईर्या के अन्तर्गत हैं और इन प्रवृत्तियों के घटित होने पर कोई ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं होनी चाहिए जिससे किसी जीव को किसी भी प्रकार का कष्ट या भय हो । इन प्रत्येक प्रकार की प्रवृत्ति के पीछे महत्व उसके उद्देश्य पर निहित होता है । अर्थात् गमन का उद्देश्य क्या है ? उसे कहाँ जाना है ? क्या वहाँ जाने से उसके दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अभिवृद्धि होनी है ? गमन के समय उसके चित्त की ईर्यासमिति और पद-यात्रा : डॉ० संजीव प्रचण्डिया 'सोमेन्द्र' | २२६ . . : www.jE

Loading...

Page Navigation
1 2 3