Book Title: Irya evam Bhasha Samiti
Author(s): Trilokchand Jain
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 6
________________ 380 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || व्यं खलु तस्स भिक्खुस्स वा मिक्खुणीय वा सामग्गियं जं सव्वद्वेहिं सहितेंहिं सदा जएज्जासि तिबेमि। अर्थात्-भाषा के प्रयोग का विवेक ही वास्तव में साधु-साध्वी के आचार का सामर्थ्य है, जिसमें वह सभी ज्ञानादि अर्थों से युक्त होकर सदा प्रयत्नशील रहे। सूत्रकृतांग सूत्र के नवें अध्ययन में भी साधु के भाषा विवेक के सम्बन्ध में कहा है भासमाणो न भासेज्जा, णेय वंफेज्ज मम्मयं । मातिट्ठाणं विवज्जेज्जा, अणुवियिं वियागरे।। अर्थात्-रत्नाधिक साधु किसी से वार्ता कर रहे हों तो, उस समय अपना पाण्डित्य प्रदर्शन करने या बड़े की लघुता प्रकट करने की दृष्टि से बीच में न बोले। भाषा समिति से युक्त साधु धर्मोपदेश का भाषण करता हुआ भी भाषण न करने वाले मौनी के समान है। साधु मर्मस्पर्शी एवं कपट प्रधान भाषा का त्याग करता है। वह साधु भाषा समिति सहित भी अभाषक ही होता है। अत: वह जब बोलना चाहे तब वह पूर्व पश्चात् का चिन्तन कर, . ज्ञान करके बोलता है। साधक के इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हुए दशवैकालिक नियुक्ति में भी लिखा है वयण विभत्ति कुसलो, वयोगतं बहुविधं वियाणेतो। दिवसं पि जपमाणो, सो वि हु वइगुत्तत्तं पत्तो।। अर्थात् जो साधक भाषाविज्ञ है, वचन और विभक्ति को जानता है तथा अन्यान्य नियमों का ज्ञाता है, वह सारे दिन बोलता हुआ भी वचन गुप्त है। प्रज्ञापना सूत्र के 11वें भाषापद में साधक के भाषा प्रयोग के सम्बन्ध में कहा हैगोयमा! इच्चेयाइं चत्तारि भासज्जायाई आउत्तं भासमाणे आराहए, णो विराहए। अर्थात्-साधक सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार भाषाओं को सम्यक् प्रकार से उपयोग रखकर, संघ पर आयी मलिनता की रक्षार्थ तत्पर होकर बोलता है तो वह आराधक होता है, विराधक नहीं। प्रश्नव्याकरणसूत्र के द्वितीय श्रुत स्कन्ध में भी स्पष्ट कहा है तइयं च वइए पावियाट पावगं ण किंचि वि भासियव्वं एवं वयसमिइजोगेण भाविओ भवई अंतरप्पा असबलम-संकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाट अहिंसर संजए सुसाहू। अर्थात्-अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना के रूप में साधक को किंचित् भी पापकारी, आरम्भकारी वचन नहीं बोलना चाहिये। भाषा समिति पूर्वक वाक् व्यापार से आत्मा की निर्मलता बढती है। उसका चारित्र एवं भाव विशुद्ध एवं परिपूर्ण होता है और उसकी साधुता प्रशंसनीय होती है। भाषा के विशुद्ध प्रयोग के कारण जीव अपने आत्म-परिणामों को निर्मल से निर्मलतम बनाता हुआ अपने परम वचरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। दशवैकालिक सूत्र के वाक्य शुद्धि नामक अध्ययन में कहा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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