Book Title: Irya evam Bhasha Samiti
Author(s): Trilokchand Jain
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 4
________________ 378 जिनवाणी माध्यम से साधक को यतना से चलने के रूप में ईर्या समिति के पालन का निर्देश किया है। जैन सिद्धान्तों का प्राण अहिंसा है और अहिंसा को जीवन्त रखने में साधक की सजगता अनिवार्य है। अहिंसा के पूर्णत: पालन हेतु रुचि, जिज्ञासा, श्रद्धा, उत्साह, धृति, प्रेरणा, दृढता और तीव्रता की जननी के सदृश पाँच भावनाओं की साधना जीवन में आवश्यक है। उनमें भी प्रधान रूप से ईर्ष्या समिति को प्रथम स्थान देते हुए कहा है 10 जनवरी 2011 पाणाइवायवेरमण-परिरक्खणद्वार पढमं ठाणगमण-गुण- जोगजुंजण-जुगंतरणिवाइयाए दिट्टिए ईरियव्वं । कीडपयंग-तस थावर-दयावरेण णिच्चं सव्व पाणा ण हीलियव्वा ण निंदियव्वा, ण गरिहियव्वा, ण हिंसीयव्वा, णं छिंदियव्वा, ण भिंदियव्वा, ण वहेयव्वा किंचि भयं यदुक्खं ण लब्भा पावेउं एवं ईरियासमिइजोगेण अंतरप्पा भाविओ भवइ । - प्रश्नव्याकरण, द्वितीय श्रुत स्कन्ध, प्रथम अध्ययन अर्थात्-प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत की रक्षा के लिए और स्व-पर गुण - वृद्धि के लिए साधु चलने और ठहरने में युगप्रमाण भूमि पर दृष्टि रखता हुआ ईर्या समिति पूर्वक चले । जिससे उसके पाँव के नीचे दबकर कीट, पतंगादि त्रस और स्थावर जीवों का घात न हो जाए। ईर्या समिति से चर्या करने वाला किसी भी प्राणी की न अवहेलना करता है, न निन्दा करता है, न बुराई करता है, न हिंसा करता है, न छेदन करता है, न भेदन करता है, न ही वध करता है । और किसी भी प्राणी को किंचित् मात्र भी भय और दुःख नहीं देता है। इस प्रकार ईर्या समिति में त्रियोग की प्रवृत्ति से जो अन्तरात्मा भावित होती है वह अक्षत चारित्र की भावना से ओतप्रोत होती है। अतः कहा जा सकता है कि यह भावना अहिंसा के साधक की रक्षा हेतु बाड़ के समान है। जैसे बाड़ से अनाज के लहलहाते खेत की रक्षा हो जाती है, वैसे ही ईर्या समिति भावना रूपी बाड़ से अहिंसा व्रत की रक्षा हो जाती है। ईर्या समिति के रक्षणार्थ साधक काल से दिन को ही गमन करे, इस सिद्धान्त के पोषणार्थ कहा गया है नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीणं वा राओ वा वियाले वा अद्धाणगमणं एत्तर । - बृहत्कल्प सूत्र अर्थात्-रात्रि या सन्ध्याकाल में साधु और साध्वियों को विहार करने का सर्वथा निषेध किया गया है। क्योंकि उस समय गमन करने पर मार्ग में चलने वाले जीव दृष्टिगोचर नहीं होते हैं। अतः ईर्या समिति का पालन नहीं होता और संयम की विराधना होती है । इस प्रकार आत्मा के उत्कृष्ट अध्यवसाय में रमण करने वाला साधक ईर्या समिति का सर्वकाल, सर्वदेश में सर्वतोभावेन सजगता एवं समर्पणता के साथ पालन करता है। साधक के लिए ईर्या समिति अमूल्य रत्न के समान है, क्योंकि इस रत्न के नहीं होने पर निश्चय साधना पक्ष तो धूमिल होता ही है व्यवहार साधना पक्ष भी मटिया मेट हो जाता है। इस प्रकार ईर्या समिति का पालक साधक उत्कृष्टता की ओर अग्रसित होता हुआ सिद्धि को प्राप्त होता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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