Book Title: Indrabhuti Gautam Author(s): Vinaysagar Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf View full book textPage 7
________________ ' श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गौत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार उग्र तपस्वी थे। दीप्त तपस्वी कर्मों को भस्मसात करने में अग्नि के समान प्रदीप्ततप करने वाले थे । तप्त तपस्वी थे अर्थात् जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे जो उराल प्रबल साधना में सशक्त थे धारगुण-परम उत्तम जिनकी धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए ऐसे गुणों के धारक थे। प्रबल तपस्वी थे। कठोर ब्रह्मचर्य के पालक थे। दैहिक सार सम्भाल या सजावट से रहित थे। विशाल तेजोलेश्या को अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे ज्ञान की अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधारी और चार ज्ञान मति, श्रुत, अवधि और मनपर्यंत ज्ञान के धारक थे सर्वाक्षर सन्निपात जैसी विविध (२८) लब्धियों के धारक थे। महान् तेजस्वी थे । वे भगवान् महावीर से न अतिदूर और न अति समीप ऊर्ध्वजानु और अधो सिर होकर बैठते थे ध्यान कोष्टक अर्थात सब और से मानसिक क्रियाओं का अवरोध कर अपने ध्यान को एक मात्र प्रभु के चरणारविन्द में केन्द्रित कर बैठते थे। बेले बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए संयमाराधना तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित / संस्कारित करते हुए विचरण करते थे। - - प्रथण प्रहर में स्वाध्याय करते थे। दूसरे प्रहर में देशना देते थे; ध्यान करते थे। तीसरे प्रहर में पारणे के दिन अत्वरित, स्थिरता पूर्वक, अनाकुल भाव से मुखवस्त्रिका, वस्त्रपात्र का प्रतिलेखन / प्रमार्जन कर, प्रभु की अनुमति प्राप्त कर नगर या ग्राम में धनवान्, निर्धन और मध्यम कुलों में क्रमागत किसी भी घर को छोड़े बिना भिक्षाचर्या के लिए जाते थे। अपेक्षित भिक्षा लेकर, स्वस्थान पर आकर, प्रभु को प्राप्त भिक्षा दिखाकर और अनुमति प्राप्त कर गोचरी/ भोजन करते थे। • इस प्रकार हम देखते हैं कि इन्द्रभूति अतिशय ज्ञानी होकर भी परम गुरु भक्त और आदर्श शिष्य थे। ज्ञाताधर्मकथा में आर्य सुधर्म के नामोल्लेख के साथ जो गणधरों के विशिष्ट गुणों का वर्णन किया गया है उनमें गणधर इन्द्रभूति का भी समावेश हो जाता है। वर्णन इस प्रकार है : "वे जाति सम्पन्न (उत्तम मातृपक्ष वाले थे। कुल सम्पन्न (उत्तम पितृपक्ष वाले) थे। बलवान, रूपवान, विनयवान, ज्ञानवान, क्षायिक, • सम्यकृत्व, सम्पन्न, साधन सम्पन्न थे। ओजस्वी थे। तेजस्वी थे। वर्चस्वी थे यशस्वी थे। क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त कर चुके थे। इन्द्रियों का दमन कर चुके थे। निद्रा और परीषों को जीतने वाले थे जीवित रहने की कामना और मृत्यु के भय से रहित थे। उत्कट तप करने वाले थे। उत्कृष्ट संयम के धारक थे। करण सत्तरी और चरण सत्तरी का पालन करने में और इन्द्रियों का निग्रह करने. वालों में प्रधान थे। आर्जव, मार्दव, लाघव / कौशल, क्षमा, गुप्ति और " शिक्षा - एक यशस्वी दशक Jain Education International निर्लोभता के धारक थे। विद्या प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं एवं मन्त्रों के धारक थे। प्रशस्त ब्रह्मचर्य के पालक थे । वेद और नय शास्त्र के निष्णात थे। भांति-भांति के अभिग्रह करने में कुशल थे। उत्कृष्टतम सत्य, शौच, ज्ञान, दर्शन और चारित्र के धारक/ पालक थे। घोर परीषों को सहन करने वाले थे धार तपस्वी/ साधक थे। उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य के पालक थे। शरीर संस्कार के त्यागी थे । विपुल तेजालेश्या को अपने शरीर में समाविष्ट करके रखने वाले थे चौदह पूर्वी के ज्ञाता थे और चार ज्ञान के धारक थे।" प्रश्नोत्तर गौतम जब " ऊर्ध्वजानु अधः शिरः" आसन से ध्यान कोष्टक / ध्यान में बैठ जाते थे अर्थात् बहिर्मुखी द्वारों / विचारों को बन्द कर अन्तर में चिन्तनशील हो जाते थे, उस समय धर्मध्यान और शुक्लध्यान की स्थिति में उनके मानस में जो भी प्रश्न उत्पन्न होते थे, जो कुछ भी जिज्ञासाएं उभरती थीं, कौतुहल जागृत होता था, तो वे अपने स्थान से उठकर भगवान् के निकट जाते, वन्दन- नमस्कार करते और विनयावनत होकर शान्त स्वर में पूछते भगवन्! इनका रहस्य क्या है? इस प्रसंग का सुन्दरतम वर्णन भगवती सूत्र में प्राप्त होता हैं देखिये "तत्पश्चात् जातश्राद्ध ( प्रवृत्त हुई श्रद्धा वाले), जात संशय, जात कौतूहल, समुत्पन्न श्रद्धा वाले, समुत्पन्न संशय वाले, समुत्पन्न कुतूहल वाले गौतम अपने स्थान से उठकर खड़े होते हैं। उत्थित होकर जिस ओर श्रमण भगवान महावीर हैं उस ओर आते हैं। उनके निकट आकर प्रभु की उनकी दाहिनी ओर से प्रारम्भ करके तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं। फिर वन्दन- नमस्कार करते हैं। नमन कर वे न तो बहुत पास और न बहुत दूर भगवान् के समक्ष विनय से ललाट पर हाथ जोड़े हुए, भगवान् के वचन श्रमण करने की इच्छा से उनकी पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले।" और, महावीर " हे गौतम!” कह कर उनकी जिज्ञासाओं संशयों, शंकाओं का समाधान करते हैं। गौतम भी अपनी जिज्ञासा का समाधान प्राप्त कर, कृत कत्य होकर भगवान् के चरणों में पुनः विनयपूर्वक कह उठते हैं "सेवं भंते! सेवं भंते! तहमेयं भंते!" अर्थात् प्रभो! आपने जैसा कहा है वह ठीक है, वह सत्य है । मैं उस पर श्रद्धा एवं विश्वास करता हूँ। प्रभु के उत्तर पर श्रद्धा की यह अनुगूंज वस्तुत: प्रश्नोत्तर की एक आदर्श पद्धति है। - स्वयं चार ज्ञान के धारक और अनेक विद्याओं के पारंगत होने पर भी गौतम अपनी जिज्ञासा को शान्त करने, नई-नई बातें जानने और अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिये स्वयं के पाण्डित्य/ज्ञान का उपयोग करने के स्थान पर प्रभु महावीर से ही प्रश्न पूछते थे । विद्वत खण्ड / ११७ For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.orgPage Navigation
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