Book Title: Indrabhuti Gautam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

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Page 5
________________ क्या यही सर्वज्ञ हैं? ऐसे ऐश्वर्य सम्पन्न सर्वज्ञ की तो मैं स्वप्न में भी कल्पना नहीं कर सकता था । वस्तुतः यदि यही सर्वज्ञ हैं तो मैंने यहाँ त्वरा में आकर बहुत बड़ी गलती की है। में तो इनके समक्ष तेजोहीन हो गया हूँ मैं इसके साथ शास्त्रार्थं कैसे कर पाऊँगा। मै वापस भी नहीं लौट सकता लौट जाता हूँ तो आज तक की समुपार्जित अप्रतिम निर्मल यशोकीर्ति मिट्टी में मिल जाएगी। तो मैं क्या करूँ?" इन्द्रभूति इस प्रकार की उधेडबुन में संलग्न थे। उसी समय अन्तर्यामी सर्वज्ञ महावीर ने अपनी योजनगामिनी वाणी से सम्बोधित करते हुए कहा- "भो इन्द्रभूति गौतम! तुम आ गये ?" अपना नाम सुनते ही इन्द्रभूति चौंक पड़े। अरे! इन्होंने मेरा नाम कैसे जान लिया ? मेरी तो इनके साथ कोई जान-पहचान भी नहीं है, कोई पूर्व परिचय भी नहीं है । अहँ प्रताड़ित होने से पुनः संकल्प-विकल्प की दोला में डोलने लगे। चाहे मैं किसी को न जानूं, पर मुझे कौन नहीं जानता ? सूर्य की पहचान किसे नहीं होती? मेरे अगाध वैदुष्य की धाक सारे देश में अमिट रूप से छाई हुई है, खैर। सन्देह-निवारण- मेरे मन में प्रारम्भ से ही यह संशय शल्य की तरह रहा है कि 'पाँच भूतों का समूह ही जीव है अथवा चेतना शक्ति सम्पन्न जीव तत्व कोई अन्य है।' मैं अनेक शास्त्रों का अध्येता हूँ, फिर भी इस विषय में प्रामाणिक निर्णय पर नहीं पहुँच पाया हूँ। यदि मेरे इस संशय का ये निवारण कर दें तो मैं इन्हें सर्वज्ञ मान लूँगा और सर्वदा के लिए इनको अपना लूंगा। अतिशय ज्ञानी महावीर ने इन्द्रभूति के मनोगत भावों को समझकर तत्काल ही कहा हे गौतम! तुम्हें यह संदेह है कि जीव है या नहीं ? यह तुम्हारा संशय वेद/ बृहदारण्य उपनिषद् की श्रुति - "विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न च प्रेत्य संज्ञास्ति" पर आधारित है। अर्थात् इन भूतों से विज्ञानघन समुत्थित होता है और भूतों के नष्ट हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है। परलोक जैसी कोई चीज नहीं है। 1 महावीर ने पुन: स्पष्ट करते हुए कहा - इस श्रुतिपद का वास्तविक अर्थ न समझने के कारण ही तुम्हें यह भ्रान्ति हुई है। इसका वस्तुतः अर्थ यह है कि आत्मा में प्रति समय नई-नई ज्ञान पर्यायों की उत्पत्ति होती है और पूर्व की पर्यायें विलीन हो जाती हैं जैसे घट का चिन्तन करने पर चेतना में घट रूप पर्याय का आविर्भाव होता है और दूसरे क्षण पट का ध्यान करने पर घट रूप पर्याय नष्ट हो जाती है और पट रूप पर्याय उत्पन्न हो जाती है। आखिर ये ज्ञान रूप चेतन पर्यायें किसी सत्ता की ही होंगी ? यहाँ भूत शब्द का अर्थ पृथ्वी, आप, तेजस् आदि पाँच भूतों से न होकर जड़-चेतन रूप समस्त ज्ञेय पदार्थों से है। जैसे शिक्षा एक यशस्वी दशक Jain Education International प्राण के निकल जाने पर पाँच भूत तो ज्यों के त्यों बने रहते हैं। तुम ही विचार करो कि वह कौन सी सत्ता है जिसके निकल जाने से पंच भूतात्मक काया निश्चेष्ट हो जाती है तथा इन्द्रियाँ सामर्थ्यहीन हो जाती हैं। इन्द्रभूति चेतना शक्ति चित्त रूप है वह मरणधर्मा नहीं है। शरीर के नष्ट होने से चेतना नष्ट नहीं होती है। पुनः, विचारक के आधार पर ही विचार की सत्ता है। यदि विचार है तो विचारक होगा ही। अपने अस्तित्व के प्रति सन्देहशील होना यह भी एक विचार है और यह विचार कोई विचारशील सत्ता ही कर सकती है, अतः आत्मा की सत्ता तो स्वयं सिद्ध है घट यह नहीं सोचता की मेरी सत्ता है या नहीं ? अतः तुम्हारी शंका ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करती है। फिर तुम्हारे वेद-श्रुतियों के प्रमाणों से भी यह स्पष्टतः सिद्ध होता है कि जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व है। दीक्षा - सर्वज्ञ महावीर के मुख से इस तर्क प्रधान और प्रामाणिक विवेचना को सुनकर इन्द्रभूति के मनः स्थित संशय शल्य पूर्णतः नष्ट हो गया । अन्तर मानस स्फटिकवत् विशुद्ध हो गया और प्रभु को वास्तविक सर्वज्ञ मानकर, नतमस्तक एवं करबद्ध होकर कहा - 'स्वामिन्! मैं इसी क्षण से आपका हो गया हूँ। अब आप मुझे पांच सौ शिष्यों के परिवार के साथ अपना शिष्य बनाकर हमारे जीवन को सफल बनावें ।' प्रभु ने उसी समय ईस्वी पूर्व ५५७ में वैशाख सुदि ११ के दिन पचास वर्षीय इन्द्रभूति को अपने छात्रपरिवार के साथ प्रव्रज्या प्रदान कर अपना प्रथम शिष्य घोषित किया। अन्य १० यज्ञाचार्यों की दीक्षा - "इन्द्रभूति छात्र परिवार सहित सर्वज्ञ महावीर का शिष्यत्व अंगीकार कर निर्यथ / श्रमण बन गये हैं।" संवाद बिजली की तरह यज्ञ मण्डप में पहुँचे तो शेष दसों याज्ञिक आचार्य किंकर्तव्यविमूढ़ से हो गये। सहसा उनको इस संवाद पर विश्वास ही नहीं हुआ। वे कल्पना भी नहीं कर पाते थे कि देश का इन्द्रभूति जैसा अप्रतिम दुर्धर्ष दिग्गज विद्वान जो सर्वदा अपराजेय रहा वह किसी निर्ग्रन्थ से पराजित कर उसका शिष्य बन सकता है। सब हतप्रभ से हो गये । किन्तु, अग्निभूति चुप न रह सका और वह आग-बबूला होकर, अपने अग्रज को बन्धन से छुड़ाने के लिए अपने छात्र समुदाय के साथ महावीर से शास्त्रार्थ करने के लिये गर्व के साथ समवसरण की ओर चल पड़ा। महावीर के समक्ष पहुँचते ही उसने भी अपनी शंका का समाधान हृदयंगम कर छात्र परिवार सहित उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। इस प्रकार क्रमशः वायुभूति आदि नवों कर्मकाण्डी उद्भट विद्वान् महावीर के पास पहुँचे और उनसे अपनीअपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर अपने छात्र परिवार सहित प्रभु के शिष्य बन गये । For Private & Personal Use Only - विद्वत खण्ड ११५ www.jainelibrary.org

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