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हिदायत बुतपरस्तिये जैन,
था तो इंद्रदेवते ऐसा क्यों करते ? अगर कोई कहे हम तीर्थंकरदेवका ध्यान नही करलेयगे हमको मूर्ति मानने से कोई जरूरत नही.
( जवाव . ) फिर गुरुमहाराजका ध्यानभी मनमेही करलिया करो, गुरुमहाराजके दर्शनोकों एक गांवसे दुसरेगांव जाना क्या ! फायदा ? गाडीघोडे पर सवार होना, रास्ते में खानेपीनेका आरंभ करना, क्या जरूरत ? घरवेठेही गुरुका ध्यान करलेना अच्छा गुरुके दर्शनोकों जाना और तीर्थंकरो के दर्शनोका नही जाना कौन ईन्साफ है ?
अगर कोई इस दलिलकों पेश करे कि तीर्थकरदेव त्यागी होते थे, उनकी मूर्तिको गेहने पहनाना क्या जरूरत ?
( जवाब . ) तीर्थंकरदेव खुद जव समवसरण में रत्नसिंहासनपर बिराजमान होते थे, दोनों तर्फ देवते चवर करते थे, ऊनके पीछे भामंडल रखा जाता था, बिहार करते वख्त देवताओंके बनाये हुवे सुवर्ण कमलोपर पांव देकर चलते थे, इन बातोसे ऊनका त्यागीपना नहीं गया था, तो उनकी मूर्तिकों गहने पहनानेसें त्यागीपना कैसे चला जायगा ? स्थानांगसूत्रमें वयान है कि - १ सावद्यव्यापार और सावद्यपरिणाम, २ सावद्यव्यापार और निरवद्यपरिणाम, ३ निरवद्यव्यापार और सावधपरिणाम, ४ निरवद्य व्यापार और निरवद्यपरिणाम, इन चार भेदोंमें पहलाभेद अधर्मीमिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा से कहा गया है, ऐसा जानना, क्योंकि अधमी मनपरिणाम पापमय और कर्तव्यभी पापमय होते है. दुसरा भेद सावद्यव्यापार और निरवद्यपरिणाम यह श्रद्धावान् श्रावककी अपेक्षासे कहा गया है, ऐसा जानना. देवपूजा, गुरुवंदन वगेरा धार्मिक कामो व्यापार दिखाई देता है, मगर मनःपरिणाम
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