Book Title: Hemchandracharya tatha Yogshastra
Author(s): Peter Piterson
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 22
________________ 60 अनुसन्धान-५४ श्रीहेमचन्द्राचार्यविशेषांक भाग-२ ते धर्म पाळे ने जगतकर्ताने गमे तेटलां जुदां जुदां नामे पूजे, पण जे जगतकर्ता सर्वेनो सरखो ज छे. हेमचन्द्रे पोताना सम्बन्धमां बनेला ओक बनावमां वात केवी रीते बतावी आपी हती ते अत्रे टांकी हुँ म्हारं बोलवा, पूरुं करीश. __ कुमारपाळ राजाओ जैनमतनो खुल्ली रीते स्वीकार को ते पहेला ते गिरनारनी जात्राओ हेमचन्द्रने साथे लइने अकवार गयो हतो. हवे राज्यमांनी प्रजानो बहु मोटो भाग शैवमतनो होवाथी तेमने खुश राखवा सारु डाह्या कुमारपाळे जे जात्रा करी ते साथे पोताना बाप-दादाथी उतरी आवेला चाल प्रमाणे सोमनाथना पवित्र तीर्थनी जात्रा करी, त्यांना महादेवना दर्शन करवा जवानो पण निश्चय को. हेमचन्द्रने दरेक रीते छंदवाने ताकी रहेला दरबारमांना ब्राह्मणोओ राजाने अगाडीथी भंभेरी मेल्यो हतो के राजा जो हेमचन्द्रने पाटण (वेरावळ)मां आववायूँ कहेशे तो हेमचन्द्र त्यां कदी आवनार नथी अने वळी ते कदाच पाटणमां आवे तो ते कदी महादेवना लिङ्गने नमन करनार नथी. ब्राह्मणोनी आवी भंभेरणी परथी राजाओ हेमचन्द्रनुं पारखं जोवानो ठराव करी पाटणमां आव्या पछी हेमचन्द्रने कह्यु के "चालो सोमनाथमां आपणे महादेवनी पूजा करीओ." हेमचन्द्रे जरा पण गुंचवाया वगर तेम करवानी हा कहीने सोमनाथना देवालयमां जइ महादेवना लिङ्गने साष्टाङ्ग नमस्कार* करी आ प्रमाणे बोल्या : "ओ महापवित्र प्रभु ! तुं ज्यां छे, तुं जे जे स्वरूपे देखाय छे, ने तुं गमे ते प्रकारनो छे, ने तुं गमे ते नामे पूजातो होय; पण तुं जो ओवो होय के जेनामां पापनो लेशभार पण अंश नथी तो तने हुं पूजुं छं." योगशास्त्रनुं पोतानुं पुस्तक पूरुं करतां हेमचन्द्र आ प्रमाणे लखे छे : "जेने कोइओ शीखव्युं नथी, छतां जेणे पोताना विचारथी ने पोताना ओक बोलथी आ जगतने रच्युं छे; जे अंधारामां संताइ रहेलो छे, छतां पवित्र माणसोने तेनां दर्शन थाय छे; ने जे धर्म पुस्तकोनी मारफते मनुष्योने बोध करे छे; जे जैनसम्प्रदायमां अष्टाङ्ग नमस्कार होता ज नथी. तेओमां पञ्चाङ्गप्रणिपातनी ज पद्धति छे. श्रीहेमचन्द्राचार्ये पण महादेवने साष्टाङ्ग नमस्कार नहोता कर्या, पण यौगिकमुद्राथी तेमनी अर्चा करी हती. “शिवपुराणोक्तदीक्षाविधिनाऽऽह्वाननावगुण्ठनमुद्रामन्त्रन्यासविसर्जनोपचारादिभिः पञ्चोपचारविधिभिः शिवमभ्यर्च्य०" (-प्रबन्धचिन्तामणि - पृ. 85)

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