Book Title: Heervijaysuri Shishya Shubhvijay krut Syadvad Bhasha Author(s): N M Kansara Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 3
________________ [104] गाथाओनो तथा वृत्तिमां श्रीगुणरत्नसूरिजीनी षड्दर्शनसमुच्चय उपरनी तर्क रहस्यदीपिकावृत्तिनो आधार अपनाव्यो होवाथी आ ग्रंथ खूब प्रमाणभूत बनी रह्यो छे. अने आ ग्रंथनी रचना ओछी बुद्धिवाळा, आळसु बाळकोने स्याद्वादशास्त्रनो बोध कराववा माटे ज खास करवामां आवी छे. तेथी आपणा बधा ज माटे तो ते खास उपयोगी होवा साथे खूब सरळ अने सुपाच्य बन्यो छे. - आजना प्रसंगे अहीं आखा ग्रंथनो सार आपका करतां जैन श्रावक भाविकाने खास रस पडे तेवी आठमा परिच्छेदमांनी जीव विषेनी चर्चा ज अहीं रजू करवामां आवे छे. आ आठमा परिच्छेदनां सूत्रो तथा वृत्ति आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिना षड्दर्शनसमुच्चयग्रंथनी गाथाओ अने तेना उपरनी श्रीगुणरत्नसूरिनी 'तर्करहस्यदीपिकावृत्ति' उपर आधारित छे. तेथी अहीं पं. शुभविजयगणि आ बे सूरीश्वरोना विचारोने ज रजू करे छे एम कहीए तो पण चालशे, अने तेथी अमना विचारे खूब प्रमाणभूत छे ए पण स्वीकावुं पडशे. आठमा परिच्छेदमां प्रथम 'पदार्थ' तत्त्वनी व्याख्या आपी. तेमना गुणधर्मो निर्देशी, तेमनो एक एवो 'जीव' पदार्थ तथा तेना चैतन्य, परिणामी, ज्ञानादि धर्मोथी भिन्न अने अभिन्न, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, संदेह परिमाण, दरेक शरीरमां भिन्न, पौद्गलिक अने अदृष्टवाळ ए गुणधर्मो निर्देश्या छे पछी आ गुणधर्मोनी समजूती आपी छे. आ पछी जीव प्राणवाळो छे एम निर्देशी आगळ चर्चा चलावतां कह्युं छे के द्रव्य अने भावभेदे प्राणो वे प्रकारना होय छे. अने आ प्राणो वडे जीवे छे तेथी 'जीव' नामे ओळखाय छे. जीव बे प्रकारना होय छे मुक्त अने संसारी. संसारी जीवो चार प्रकारना होय छे: सुर, नारक, मनुष्य अने तिर्यक्. सुरो भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार प्रकारना होय छे. नारक जीवो रत्नप्रभा पृथिवी वगेरे पर रहेता होवाने कारणे सात प्रकारना होय छे. मनुष्यो गर्भथी जन्मनारा अने संमूर्छाथी जन्मनारा, तिर्यंच जीवो पण एक, बे, त्रण, चार अने पांच इन्द्रियो होय ए अनुसार एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय एम पांच प्रकारना होय छे. एकेन्द्रिय जीवो पृथ्वी, जळ, तेज, वायु, वनस्पति ए प्रकारना होय छे. आपणने वधु रस पडे तेवी चर्चा अहीं ज आवे छे. जैन दर्शननो विरोधी प्रश्न उठावे छे के पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने वनस्पति ए पांचने जीव केवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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