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श्रीहीरविजयसूरीश्वर - शिष्य श्रीशुभविजयकृत स्याद्वाद - भाषा
आचार्यश्री हीरविजयसूरिजी वि. सं. १५८३ना मागसर सुदि ९ ने सोमवारे पालनपुरमा पिता कुंराशाह अने माता नाथीदेवीना पुत्र हीरजी रूपे जन्म्या हता. वि. सं. १५९६मां कार्तिक वदि २ने सोमवारे तेमणे महान जैनाचार्य श्रीविजयदानसूरीश्वरजीना शुभहस्ते दीक्षा प्राप्त थई अने तेओ मुनि हीरहर्ष बन्या. पछी वि. सं. १६०७मां पंन्यास पद पामी वि. सं. १६०९मां वाचक पद पाम्या अने वि. सं. १६९०मां सत्तावीस वर्षनी युवान वये सूरिपद पामी आचार्य बन्या. वि. सं. १६२२मां तेमना गुरुश्री विजयदानसूरीश्वरजी कालधर्म करी जतां श्री हीरविजयसूरीश्वरजीए जैनशासनना एक महान नायकनो भार उठावी लीधो. वि. सं. १६३९ ना जेठवदि १३ना दिवसे आचार्यश्रीनो मेळाप सम्राट अकबरनी साथे फतेहपुर सिक्रीमां थयो. परिणामे तेमना प्रभावना प्रतापे तेमनी पासेथी प्रबोध पामी, सम्राटे पोताना सुबाओ द्वारा जैन साधुओने थता उपद्रवो बंध कराव्या, अने अहिंसानो स्वीकार कर्यो.
- नारायण म. कंसारा
आचार्यश्री हीरविजयसूरीश्वरजीए साधुजीवन दरमियान ऊंडो शास्त्राभ्यास कर्यो हतो. एमना अनेक शिष्यो हता. तेओ श्री अकबरने मळवा गया त्यारे तेमनी साथै ६७ (सडसठ ) साधुओ हता, जेमां मुख्य हता विमलहर्ष उपाध्याय, शांतिचंद्रगणि, पंडित सोमविजय गणि, पं. सहजसागरगणि, पं. सिंहविमलगणि, पं. गुणविजय, पं. गुणसागर, पं. कनकविजय, पं. धर्मसीऋषि, पं. मानसागर, पं. रत्नचंद्र, ऋषि काहनो, पं. हेमविजय, ऋषि जगमाल, पं, रत्नकुशल, पं. रामविजय, पं. भानुविजय, पं. कीर्तिविजय, पं. हंसविजय, पं. जसविजय, पं. जयविजय पं. लाभविजय, पं. मुनिविजय, पं. धनविजय, पं. मुनिविमल वगेरे हता. आमां केटलाक वैयाकरणी, नैयायिक, दार्शनिक, वादी, व्याख्याता, ध्यानी, अध्यात्मी अने शतावधानी हता. खास करीने हीर सौभाग्य महाकाव्य, विजय प्रशस्ति, लाभोदय रास वगेरे कृतिओना कर्ताओ पण साथे ज हता, जेमणे बधा प्रसंगी नजरे निहाळी ए ग्रंथोनी रचना करी छे.
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आ बधा साधुशिष्योमांना एक हता पं. शुभविजय गणि. एमणे पोतानी 'जातने पोताना ग्रंथांना आरंभे ज श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीने पोताना "गुरु" तरीके निर्देशीने प्रणाम कर्या छे अने ग्रंथोनी पुष्पिकाओमां पण पोताने श्रीहीरविजयसूरीश्वरना चरणसेवी शिष्य तरीके ओळखाच्या छे. तेमणे तर्कभाषावार्तिक, स्याद्वाद भाषासूत्र, स्याद्वादभाषा सूत्र वृत्ति, अने प्रश्नोत्तरमाला, तथा काव्यकल्पलतावृत्तिमकरंद अने हैमी नाममाला, महावीर स्वामीनुं २७ भवनुं स्तवन ए सात ग्रंथो रच्या छे. आ संस्कृत ग्रंथोनी रचना माटे तेमने तेमना ज्येष्ठ गुरुबंधु श्रीविजयदेवसूरीश्वर तरफथी सूचन अने प्रोत्साहन मयुं हतुं श्रीहीरविजयसूरीश्वरजी पछी श्रीविजयसेनसूरीश्वरजी पासे आव्या अने तेमना पछी श्री विजयदेवसूरीश्वरजी पासे आव्या हता. पं. शुभविजयगणिए पोताना आ ग्रंथो वि. सं. १६६१ थी १६७१ ना दस वर्षना गाळामां ज रच्या छे,
पं. शुभविजय गणिनो स्याद्वादभाषा ग्रंथ सूत्र अने वृत्ति ए उभयस्वरूपे रचायेलो छे. आ सूत्रग्रंथमां एमणे वादी देवसूरिकृत प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार नामना सुप्रसिद्ध ग्रंथमांनां ज मोटा भागनां सूत्रो अपनाव्यां छे अने क्वचित् माणिक्यनंदिनां परीक्षामुखसूत्रमांना थोडांक सूत्रो पण लीधां छे. उपरांत आचार्य हरिभद्रसूरिकृत षड्दर्शनसमुच्चयनी केटलीक गाथाओना आधारे थोडांक सूत्रोनी रचना करी छे. आ बधां सूत्रोनी सरळ समजूती आपका एमणे वृत्तिग्रंथनी रचना करी छे. लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावादनी संशोधन पत्रिका 'संबोधि'ना अढारमा अंक (१९९२ - १९९३) मां आ स्याद्वादभाषा ग्रंथ वृत्ति सहित प्रसिद्ध करवामां आव्यो छे. पहेलां आ ग्रंथ पोथी रूपे बे वार छपायेलो छे, पण एमां सूत्र अने वृत्ति ए बे ग्रंथ भागोने योग्य रीते चोकसाईपूर्वक अलग पाडवामां आव्या न हता. ला द. विद्यामंदिरना 'संबोधिनी आवृत्तिमां आ बे भाग खूब चोकसाईपूर्वक अलग पाडीने दर्शाव्या छे.
पं. शुभविजयगणिए आ स्याद्वादभाषा सूत्रवृत्ति ग्रंथनी रचना करी एमां मुख्य रूपे वादिदेवसूरिजीना प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारनां ज सूत्रो अपनाव्यां होवाथी पोताना ग्रंथनुं बीजुं वैकल्पिक नाम आप्युं छे 'प्रमाणनयतत्त्वप्रवेशिका'. आ ग्रंथनी विशेषता ए छे के तेमां वादिदेवसूरिजीनां ज सूत्रो अपनाव्यां होवाथी तथा आठमा परिच्छेदनां सूत्रोमा आचार्य हरिभद्रसूरिना षड्दर्शनसमुच्चयनी
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गाथाओनो तथा वृत्तिमां श्रीगुणरत्नसूरिजीनी षड्दर्शनसमुच्चय उपरनी तर्क रहस्यदीपिकावृत्तिनो आधार अपनाव्यो होवाथी आ ग्रंथ खूब प्रमाणभूत बनी रह्यो छे. अने आ ग्रंथनी रचना ओछी बुद्धिवाळा, आळसु बाळकोने स्याद्वादशास्त्रनो बोध कराववा माटे ज खास करवामां आवी छे. तेथी आपणा बधा ज माटे तो ते खास उपयोगी होवा साथे खूब सरळ अने सुपाच्य बन्यो छे.
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आजना प्रसंगे अहीं आखा ग्रंथनो सार आपका करतां जैन श्रावक भाविकाने खास रस पडे तेवी आठमा परिच्छेदमांनी जीव विषेनी चर्चा ज अहीं रजू करवामां आवे छे. आ आठमा परिच्छेदनां सूत्रो तथा वृत्ति आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिना षड्दर्शनसमुच्चयग्रंथनी गाथाओ अने तेना उपरनी श्रीगुणरत्नसूरिनी 'तर्करहस्यदीपिकावृत्ति' उपर आधारित छे. तेथी अहीं पं. शुभविजयगणि आ बे सूरीश्वरोना विचारोने ज रजू करे छे एम कहीए तो पण चालशे, अने तेथी अमना विचारे खूब प्रमाणभूत छे ए पण स्वीकावुं पडशे.
आठमा परिच्छेदमां प्रथम 'पदार्थ' तत्त्वनी व्याख्या आपी. तेमना गुणधर्मो निर्देशी, तेमनो एक एवो 'जीव' पदार्थ तथा तेना चैतन्य, परिणामी, ज्ञानादि धर्मोथी भिन्न अने अभिन्न, कर्ता, साक्षात् भोक्ता, संदेह परिमाण, दरेक शरीरमां भिन्न, पौद्गलिक अने अदृष्टवाळ ए गुणधर्मो निर्देश्या छे पछी आ गुणधर्मोनी समजूती आपी छे.
आ पछी जीव प्राणवाळो छे एम निर्देशी आगळ चर्चा चलावतां कह्युं छे के द्रव्य अने भावभेदे प्राणो वे प्रकारना होय छे. अने आ प्राणो वडे जीवे छे तेथी 'जीव' नामे ओळखाय छे. जीव बे प्रकारना होय छे मुक्त अने संसारी. संसारी जीवो चार प्रकारना होय छे: सुर, नारक, मनुष्य अने तिर्यक्. सुरो भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार प्रकारना होय छे. नारक जीवो रत्नप्रभा पृथिवी वगेरे पर रहेता होवाने कारणे सात प्रकारना होय छे. मनुष्यो गर्भथी जन्मनारा अने संमूर्छाथी जन्मनारा, तिर्यंच जीवो पण एक, बे, त्रण, चार अने पांच इन्द्रियो होय ए अनुसार एकेन्द्रियथी पंचेन्द्रिय एम पांच प्रकारना होय छे. एकेन्द्रिय जीवो पृथ्वी, जळ, तेज, वायु, वनस्पति ए प्रकारना होय छे.
आपणने वधु रस पडे तेवी चर्चा अहीं ज आवे छे. जैन दर्शननो विरोधी प्रश्न उठावे छे के पृथ्वी, जळ, तेज, वायु अने वनस्पति ए पांचने जीव केवी
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रीते कहेवाय? कारण के तेमा जीवनां प्रगट लक्षण जोवा मळतां नथी, आना अनुसंधानमां श्रीगुणरत्रसूरिजीने अनुसरीने पं. शुभविजयगणि स्याद्वादभाषावृत्तिमां कहे छे के भले पृथ्वी वगैरेमा जीवनां प्रगट लक्षण न जोवा मळतां होय छतां अप्रगट लक्षणो तो जोवा मळे छे ज. जेम दारू वगेरे पीने बेभान थयेला माणसमां जीवता होवानां प्रगट लक्षणो देखाता नथी, छतां अप्रगट लक्षणो उपरथी ते जीवतो होवानुं व्यवहारमा मानवामां आवे छे, ए ज रीते पृथ्वी वगेरेने सजीव गणवा जोईए. पृथ्वी वगेरेमां पोतपोताना आकारे रहेला लवण, विद्रुम, पथ्थर वगेरे पोतपोताना जेवा पदार्थो बनावे छे. वनस्पति पोतपोतानां जुदां जुदां फळो आपे छे. आम चैतन्यलक्षण प्रगट न होवा छतां अप्रगट तो छे ज. एथी पृथ्वी वगेरेने जीव गणवां जोईए. जेम शरीरमा रहेला हाडकां शरीरने अनुसरता आकारवाळ, कठण अने सचेतन होय छे ए ज रोते पृथ्वी शरीर ते ते जीवने अनुरूप ज होय
एज रीते जळ पण अप्काय जीव छे. हाथीनुं शरीर कलल अवस्थामां द्रव अने सचेतन होय छे. ए जीते अपकाय जीवनं शरीर पण प्रवाहीरूप अने सचेतन होय छे. ईंडामा अवयवो उत्पन्न थवा छतां प्रवाहीस्वरूप होय छे अने चेतन पण होय छे. बरफ वगेरे अप्काय होवाथी सचेतन छे. खोदेल भूमिमांथी देडकानी जेम धणी वार जळ पण पोतानी मेळे उनीकळी आवे छे. आकाशमां रहेलं जळ पोतानी मेळे ज वादळमाथी उद्भवीने माछलांनी जेम नीचे पडे छे. नदी वगेरेनां जळमां खूब ठंडीना दिवसोमा ओछा जळमां ओछु अने वधु जळमां वधुं हूंफाळापणुं जोवा मळे छे. आ हूंफाळापणं ते सचेतन होवाथी ज होय छे, जेम मनुष्यशरीरमां होय छे तेम. वहेली सवारे पश्चिम दिशाथी पूर्वदिशामां तळाव वगैरेनी सपाटी पर नजर करीए तो वराळ एकठी थयेली जोवा मळे छे ए पण एमां रहेला अप्काय जीवने लीधे ज होवाथी जळ सचेतन छे.
जेम रात्रे आगियानो देह चळकतो देखाय छे एम अंगारा वगेरेमां पण अमुक विशिष्ट शक्ति तेमा रहेला तेजस्काय सचेतन जीवने लीधे ज रहेली छे. जेम जीवता प्राणीने ज ताव आवे, मरेलाने न आवे, ए ज रीते गरमी पण सचेतनमां ज होई शके, निर्जीवमां नहीं.
जेम देव पोतानी शक्तिना प्रभावे के अंजन वगेरे विद्याना प्रभावे
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अंतर्धान थई जतां तेमनुं शरीर आंखो वडे जोई शकातुं नथी, ए ज रोते वावुनुं रूप आंखो वडे जोई शकातुं नथी, कारण के तेनुं परिमाण सूक्ष्म होय छे. परमाणु, आगमां बळीने राख बनी गयेल पथ्थर, तिर्यग् जीवोने गतिप्रदान करवानी शक्ति वगेरे द्वारा वायु, सचेतनपणुं अनुमानथी जाणी शकाय छे.
आ बधा करतां वधु रस पडे तेवी चर्चा वनस्पति, सचेतनपणुं साबित करवा माटे रजू थई छे. बकुल, अशोक, चंपो वगेरेमां वृक्षशरीरो तेमां जीवनी प्रवृत्ति अर्थात् चेतनपणुं न होय तो मनुष्यना जेवा धर्मोवाळी न होई शके. मनुष्यनुं शरीर जेम बाळक, कुमार, युवान, वृद्ध एवां विशिष्ट परिवर्तनो पामे छे ते उपरथी तेमां चेतन होवानी जाण थाय छे ए ज रीते आ वनस्पतिजीवोनां शरीर पण बाळ, कुमार, युवावस्था, घडपण वगैरे अवस्थामाथी रोज रोज वधतां जईने पसार थाय छे. जेम मनुष्य-शरीरमा ज्ञाननो गुण होय छे तेम शीमळो, पुन्नाग, रसक, सुंदक, वच्छूल, अगस्त्य, आंबळो, काकडी वगेरेनां वनस्पति शरीरोमां ऊंघ, जागरण, अने तेनो अभाव वगेरे जोवा मळे छे. तेमनी नीचे दाटेला धननी आसपास ते वृक्षो पोतानां मूळियां वींटाळी दे छे. वड, पीपळो, लोमडो वगेरे वृक्षोमां वादळना गडगडाट, ठंडा वायुनो स्पर्श वगेरेथी अंकुरो फूटे छे. दारू पीधेली स्त्री झांझर पहेरीने पोताना कुमळा पगनी ठेस मारे त्यारे अशोकवृक्षने पांदडां तथा फूल आवे छे. युवती आलिंगन आपे तो फणसना झाडने फूल आवे छे, दारूनो कोगळो बकुलवृक्ष पर करवाथी तेने फूल आवे छे, सुगंधीदार चोख्खं जळ छंटवाथी चंपाने फूल आवे छे. त्रांसी आंखे कटाक्षपूर्वक जोवाथी तिलकवृक्षने फूल आवे छे. पंचम स्वरनुं गान करवाथी शिरीष अने विरहडाने फूल आवे छे. कमळ वगेरे सवारे खीले छे, ज्यारे घोषातकि वगेरे पुष्पो सांजे खीले छे. कुमुद चंद्र ऊगवाथी खीले छे. वरसाद आववानो होय त्यारे शमी खरे छे. वेलीओ वाड उपर सरकीने चढे छे. लाजवंतीने अडतां तेनां पांदडां संकोचाय छे. बधी वनस्पतिओ पोतपोतानी खास ऋतुओमां ज फळ आपे छे. आ बधुं तेमनामां ज्ञान न होय तो संभवी न शके. आ उपरथी साबित थाय छे के वनस्पतिमां चेतन होय छे.
जेम मनुष्यशरीरना हाथपग कापी नाखवामां आवे तो ते सुकाई जाय छे तेम फलफूल कापी लेवामां आवतां वनस्पति-शरीर पण सुकावा लागे छे.
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________________ [1073 जेम मनुष्यशरीरमां स्तनमां दूध, जळ, लोही, खावू, पीवू वगेरे जोवामां आवे छे तेम वनस्पति शरीरमां पण जमीनमां सरकवू, डाळीए डाळीए अने पांदडे पांदडे रस पहोंचाडवो वगेरे क्रियाओ जोवा मळे छे. जेम मनुष्य शरीरनुं अमुक चोक्कस आयुष्य होय छे तथा इष्ट अने अनिष्ट आहार वगेरेने लीधे वृद्धि के हास थाय छे तेम वनस्पतिशरीरमां पण अमुक चोक्कस आयुष्य तथा इष्ट-अनिष्ट खातरपाणीथी वृद्धि के हास थतां जोवा मळे छे. जेम मनुष्यशरीरमा विविध रोगने लीधे चामडी पीळी पडवी, पेट वगेरे अवयवोर्नु वधवू, गळामां शोष पडवो, आंगळी नाक वगेरे नमी के गळी पडवां वगेरे लक्षणो जोवा मळे छे, ए ज रोते वनस्पतिशरीरमां पण जोवा मळे छे. जेम मनुष्यशरीरने अमुक औषधो के रसायनो खवडाववाथी तेमां ताजगी आवे छे एम वनस्पतिशरीरने पण अमुक विशिष्ट खातर आपवाथी तेमां ताजगी आवे छे. आ बधा उपरथी साबित थाय छे के वनस्पति-शरीरमां पण चेतन रहेलुं छे. आजना जमानामां जेम आपणे बधी बाबतोमां वैज्ञानिक आधार शोधीए छीए अने धर्मना सिद्धान्तोने वैज्ञानिक ठराववा मथीए छीए ए ज रीते मध्यकाळमां अथवा वि. सं नी 6 थी 7 मीथी लगभग 18 मी सदी सुधी भारतमां पंडितोना वादविवाद, शास्त्रार्थ, दिग्विजय वगेरेने आधारे अमुक वात सिद्ध के असिद्ध ठरतो. जैन धर्मना सिद्धसेनदिवाकरथी आचार्यत्रीशीलचंद्रसूरिजी सुधीना प्रखर आचार्यो पण आ पद्धतिए ज आपणी समक्ष तत्त्वनिरूपण करता आव्या छे. पं. शुभविजयगणिए जैन बाळकोने स्याद्वादमा प्रवेश कराववा वादिदेवसूरि अने हरिभद्रसूरि जेवा प्रखर जैन न्यायकुशळ आचार्योना ग्रंथोने आधारे पोताना स्याद्वादभाषा ग्रंथनी रचना करी छे अने ए रीते पोताना गुरु श्रीहीरविजयसूरीश्वरजीना नामने अमर कयुं छे. आजना प्रसंगे आवा प्रखर आचार्यश्रीना एक पंडित शिष्यना एक ग्रंथनो परिचय आपीने एमने भावांजलि समर्पित करवामां आपनो अमूल्य समय लेवा बदल मिच्छा मि दुक्कडम्. - x-.