Book Title: Hamare Jyotirdhar Acharya Author(s): Pratapmuni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 7
________________ हमारे ज्योतिर्धर आचार्य इस प्रकार केवल तीन वर्ष और कुछ महीनों तक ही आप समाज को मार्ग-दर्शन देते रहे और संवत् १९५७ कार्तिक शुक्ला हवीं के दिन आपश्री का रतलाम में देहावसान हुआ। आगमोदधि आचार्य श्री मन्नालालजी म. सा० जन्म गांव-रतलाम वि० सं० १९२६ । दीक्षा संवत्-१६३८ आषाढ़ शुक्ला ६ मंगलवार रतलाम में । दीक्षा गुव-श्री रतनचन्द जी म० (लोद वाले) । स्वर्गवास-१९६० आषाढ़ कृष्णा १२ सोमवार ब्यावर में । संवत् १६२६ में पूज्यप्रवर का जन्म रतलाम में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम अमरचन्दजी, मातेश्वरी का नाम नानीबाई था। आप बोहरा गोत्रीय ओसवाल थे। शैशव काल अति सुख शान्तिमय बीता। पूज्यप्रवर श्री उदयसागरजी म. का पीयुषवर्षी उपदेश सुनकर श्रेष्ठी अमरचन्दजी और सुपुत्र श्री मन्नालालजी दोनों ही वैराग्य में प्लावित हो उठे। संवत् १९३८ आषाढ़ शुक्ला हवीं मंगलवार को पूज्यप्रवर के कमनीय कर-कमलों द्वारा दीक्षित हुए और लोद वाले श्री रतनचन्दजी म० के नेश्राय में आप दोनों घोषित किये गये । दीक्षा के पश्चात् सुष्ठुरीत्या अभ्यास करने में लग गये। पूज्यश्री मन्नालालजी म० की बुद्धि अति शुद्ध-विशूद्ध-निर्मल थी। कहते हैं कि एक दिन में लगभग पचास गाथा अथवा श्लोक कंठस्थ करके सुना दिया करते थे। विनय, अनुभव, नम्रता और अनुशासन का परिपालन आदि-आदि गुणों से आपका जीवन आबालवृद्ध सन्तों के लिये प्रिय था । एतदर्थ पूज्य श्री उदयसागरजी म. ने दिल खोलकर पात्र को शास्त्रों का अध्ययन करवाया, गूढ़ातिगूढ़ शास्त्र कुंजियों से अवगत कराया और अपना अनुभव भी सिखाया। इस प्रकार शनैः शनैः गांभीर्यता, समता, सहिष्णुता, क्षमता आदि अनेकानेक गुणों के कारण आपका जीवन चमकता, दमकता, दीपता हुआ समाज के सम्मुख आया। आचार्य पद योग्य गुणों से समवेत समझकर चतुर्विध संघ ने संवत् १९७५ वैशाख शुक्ला १० के दिन जम्मू काश्मीर) नगर में चारित्र चूड़ामणि पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी म. सा. के "सम्प्रदाय" के "आचार्य" पद से आप (पू० श्री मन्नालालालजी म.) श्री को विभूषित किया गया । तत्पश्चात् व्याख्यान वाचस्पति पं० रत्न श्री देवीलालजी म०, प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म०, भावी आचार्य श्री ख़बचन्दजी म० आदि अनेक सन्त शिरोमणि आपके स्वागत सेवा में पहुंचे और पुनः सर्व मुनि मण्डल का मालवा में शुभागमन हुआ । अनेक स्थानों पर आपके यशस्वी चातुर्मास हुए और जहाँ-जहाँ आचार्य प्रवर पधारे, वहाँ-वहाँ आशातीत घर्मोन्नति व दान, शील, तप, भावाराधना हुआ हो करती थी। अनेक मुमुक्ष आपके वैराग्योत्पादक उपदेशों को श्रवणगत कर आपके चारु-चरण सरोज में दीक्षित भी हए हैं। मालवा-राजस्थान व पंजाब प्रान्त के कई भागों में आपका परिभ्रमण हुआ। आपके तलस्पर्शीज्ञान गरिमा को महक सुदूर तक फैली हुई थी। कई भावुक जन यदा-कदा सेवा में आ-आकर शंका समाधान पाया ही करते थे। श्रमण संघीय उपाध्याय श्री हस्तीमल जी म० सा० भी आपकी सेवा में रहकर शास्त्रीय अध्ययन कर चुके हैं। इस प्रकार आप जहाँ तक आचार्य पद को सुशोभित करते रहे; वहाँ तक चतुर्विध संघ की चौमुखी उन्नति होती रही। संघ में नई जागति और नई चेतना ने अंगड़ाई ली। सं० १९६० अजमेर का बृहद् साघु-सम्मेलन सम्पन्न कर आचार्य प्रवर वर्षावास व्यतीत करने हेतु ब्यावर नगर को धन्य बनाया। सहसा शरीर में रोग ने आतंक खड़ा कर दिया। तत्काल आसपास के अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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