Book Title: Hamare Jyotirdhar Acharya Author(s): Pratapmuni Publisher: Z_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf View full book textPage 9
________________ हमारे ज्योतिर्धर आचार्य ३७१ भजन, दोहे व लावणियाँ आज भी साधक जिल्ह्वा पर ताजे हैं । आपकी रचना सरल-सुबोध व माव प्रधान मानी जाती है । शब्दों की दुरूहता से परे है । कहीं-कहीं आपकी कविताओं में अपने आप ही अनुप्रास अलंकार इतना रोचक बन पड़ा है कि गायकों को अति आनन्द की अनुभूति होती है और पुनः पुनः गाने पर भी मन अघाता नहीं है । जैसा कि - यह प्रजम कुंवर जी प्रगट सुनो पुण्याई, महाराज, मात रुक्मीणि का जाया जो । जान भोग छोड़ लिया योग, रोग कर्मों का मिटाया जी ॥" सर्वगुणसम्पन्न प्रखर प्रतिभा के धनी समझकर चतुर्विध संघ ने सं० १९६० माघ शुक्ला १३ शनिवार की शुभ घड़ी मन्दसौर की पावन स्थली में पूज्य श्री हुकमीचन्द जी म० के सम्प्रदाय के आप आचार्य बनाये गये । आचार्य पद पर आसीन होने पर " यथानाम तथागुण" के अनुसार चतुर्विध संघ समाज में चौमुखी तरक्की प्रगति होती रही और आपके अनुशासन की परिपालना बिना दबाव के सर्वत्र सश्रद्धा-भक्ति प्रेमपूर्वक हुआ करती थी । अतएव आचार्य पद पर आपके विराजने से सकल संघ को स्वाभिमान का भारी गर्व था । आपके सर्व कार्य सन्तुलित हुआ करते थे । शास्त्रीय मर्यादा को आत्मसात करने में सदैव आप कटिबद्ध रहते थे । महिमा सम्पन्न विमल व्यक्तित्व समाज के लिए ही नहीं, अपितु जन-जन के लिए मार्ग दर्शक व प्रेरणादायी था । समतारस में रमण करना ही आपको अभीष्ट था । यही कारण था कि विरोधी तत्त्व भी आपके प्रति पूर्ण पूज्य भाव रखते थे । मालवा, मेवाड़, मारवाड़, पंजाब व खानदेश आदि अनेक प्रान्तों में आपने पर्यटन किया था । जहाँ भी आप चरण सरोज घरते थे, वहाँ काफी धर्मोद्योत हुआ ही करता था । चांदनी चौक दिल्ली के भक्तगण आपके प्रति अटूट श्रद्धा-भक्ति रखते थे । इस प्रकार सं० २००२ चैत्र शुक्ला ३ के दिन व्यावर नगर में आपका देहावसान हुआ और आपके पश्चात् सम्प्रदाय के कर्णधार के रूप में पूज्य प्रवर श्री सहस्रमल जी म० सा० चुने गये । आचार्य प्रवर श्री सहस्रमलजी महाराज साहब जन्म गाँव - टाटगढ़ (मेवाड़) २६५२ । वीक्षा संवत् - १६७४ भादवा सुदी ५ । दीक्षा गुरु- श्री देवीलाल जी म० । स्वर्गवास - २०१५ माघ सुदी १५ । Jain Education International आपका जन्म संवत् १६५२ टाटगढ़ (मेवाड़) में हुआ था । पीतलिया गोत्रीय ओसवाल परिवार के रत्न थे । अति लघुवय में वैराग्य हुआ और तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य कालुराम जी के पास दीक्षित भी हो गये । साधु बनने के पश्चात् सिद्धान्तों की तह तक पहुँचे, जिज्ञासु बुद्धि के आप धनी थे ही और तेरापंथ की मूल मान्यताएँ भी सामने आई - " मरते हुए को बचाने में पाप, भूखे को रोटी कपड़े देने में पाप, अन्य की सेवा सुश्रुषा करना पाप" अर्थात् - दयादान के विपरीत मान्यताओं को सुनकर - समझकर आप ताज्जुब में पड़ गये । अरे ! यह क्या ? सारी दुनिया के धर्म मत पंथों की मान्यता दयादान के मण्डन में है और हमारे तेरापंथ सम्प्रदाय की मनगढ़न्त उपरोक्त मान्यता अजब - गजब की ? कई बार आचार्य कालुजी आदि साधकों से सम्यक् समाधान भी मांगा लेकिन सांगोपांग शास्त्रीय समाधान करने में कोई सफल नहीं हुए । अतएव विचार किया कि इस सम्प्रदाय का परित्याग करना ही अपने लिए अच्छा रहेगा । चूंकि जिसकी मान्यता रूपी जड़ें दूषित होती हैं उसकी शाखा प्रशाखा आदि सर्व दूषित ही मानी जाती हैं। बस सात वर्षं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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