Book Title: Gyan bhandaro par Ek Drushtipat
Author(s): Punyavijay
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 3
________________ जैसे कि कर्णाटक के दिगम्बर भाण्डार । यों तो वैदिक, बौद्ध आदि परम्पराओं के ग्रन्थों के साथ मेरा वही भाव व सम्बन्ध है जैसा जैन-परम्परा के शास्त्र-संग्रहों के साथ, तो भी मेरे कार्य का प्रमुख सम्बन्ध परिस्थिति की दृष्टि से जैन भाण्डारों के साथ रहा है। इससे मैं उन्हीं के अनुभव पर यहां विचार प्रस्तुत करता हूं । भारत में कम से कम पांचसौ शहर, गांव, कस्बे आदि स्थान होंगे जहां जैन शास्त्रसंग्रह पाया जाता है । पांचसौ की संख्या-यह तो स्थानों की संख्या है, भाण्डारों की नहीं । भाण्डार तो किसी एक शहर, एक कस्बे या एक गांव में पन्द्रह-बीस से लेकर दो-तीन तक पाए जाते हैं। पाटन में बीस से अधिक भाण्डार हैं तो अहमदाबाद, सूरत, बीकानेर आदि स्थानों में भी दस-दस, पन्द्रह-पन्द्रह के आसपास होंगे। भाण्डार का कद भी सबका एकसा नहीं। किसी किसी भाण्डार में पचीस हजार तक ग्रन्थ हैं, तो किसी किसी में दो सौ, पांचसौ भी हैं। भाण्डारों का महत्व भिन्न-भिन्न दृष्टि से आंका जाता है—किसी में ग्रन्थराशि विपुल है तो विषय-वैविध्य कम है, किसी में विषय-वैविध्य बहुत अधिक है तो अपेक्षाकृत प्राचीनत्व कम है, किसी में प्राचीनता बहुत अधिक है, किसी में जैनेतर बौद्ध, वैदिक जैसी परम्पराओं के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ शुद्ध रूप में संगृहित हैं तो किसी में थोड़े ग्रन्थ ऐसे हैं जो उस भाण्डार के सिवाय दुनिया के किसी भाग में अभी तक प्राप्त नहीं हैं, विशेष रूप से ऐसे ग्रन्थ बौद्ध-परम्परा के है, किसी में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी, फारसी आदि भाषा-वैविध्य की दृष्टि से ग्रन्थराशि का महत्त्व है तो किसी किसी में पुराने ताड़पत्र और चित्रसमृद्धि का महत्त्व है। सौराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के अलग-अलग स्थानों में मैं रहा हूं और भ्रमण भी किया है। मैंने लगभग चालीस स्थानों के सब भाण्डार देखे हैं और लगभग पचास भाण्डारों में तो प्रत्यक्ष बैठकर काम किया है । इतने परिमित अनुभव से भी जो साधन-सामग्री ज्ञात एवं हस्तगत हुई है उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्परा के प्राचीन तथा मध्ययुगीन शास्त्रों के संशोधन आदि में जिन्हें रस है उनके लिये अपरिमित सामग्री उपलब्ध है। श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरहपंथी-इन चार फिरकों के आश्रित जैन भाण्डार हैं । यों तो मैं उक्त सब फिरकों के भाण्डारों से थोड़ा बहुत परिचित हूं तो भी मेरा सबसे अधिक परिचय तथा प्रत्यक्ष सम्बन्ध श्वेताम्बर परम्परा के भाण्डारों से ही रहा है। मेरा ख्याल है कि विषय तथा भाषा के वैविध्य की दृष्टि से, ग्रन्थ संख्या की दृष्टि से, प्राचीनता की दृष्टि से, ग्रन्थों के कद, प्रकार, अलंकरण आदि की दृष्टि से तथा अलभ्य, दुर्लभ और सुलभ परन्तु शुद्ध ऐसे बौद्ध, वैदिक जैसी जैनेतर परम्पराओं के बहुमूल्य विविध विषयक ग्रन्थों के संग्रह की दृष्टि से श्वेताम्बर ६२ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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