Book Title: Gyan bhandaro par Ek Drushtipat Author(s): Punyavijay Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ ज्ञान भंडारों पर एक दृष्टिपात - आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्य विजय जी इस युग के विकसित साधन और विकसित व्यवहार की दृष्टि से लाइब्रेरी या पुस्तकालयों का विश्व में जो स्थान है वही स्थान पहले के समय में उस युग की मर्यादा के अनुसार भाण्डारों का था । धन, धान्य, वस्त्र, पात्र आदि सांसारिक चीजों के भाण्डारों की तरह शास्त्रों का भी भाण्डार अर्थात् संग्रह होता था जिसे धर्मजीवी और विद्याजीवी ऋषि-मुनि या विद्वान ही करते थे। यह प्रथा किसी एक देश, किसी एक धर्म या किसी एक परम्परा में सीमित नहीं रही है। भारतीय आर्यों की तरह ईरानी आर्य, क्रिश्चियन और मुसलमान भी अपने सम्मान्य शास्त्रों का संग्रह सर्वदा करते रहे हैं। भाण्डार के इतिहास के साथ अनेक बातें संकलित हैं—लिपि, लेखन कला, लेखन के साधन, लेखन का व्यवसाय इत्यादि । परन्तु यहां तो मैं अपने लगभग चालीस वर्ष के प्रत्यक्ष अनुभव से जो बातें ज्ञात हुई हैं उन्हीं का संक्षेप में निर्देश करना चाहता हूं। । जहां तक मैं जानता हूं, कह सकता हूं कि भारत में दो प्रकार के भाण्डार मुख्यतया देखे जाते हैं—व्यक्तिगत मालिकी के और सांघिक मालिकी के । वैदिक परम्परा में पुस्तक संग्रहों का मुख्य सम्बन्ध ब्राह्मण वर्ग के साथ रहा है। ब्राह्मणवर्ग गृहस्थाश्रम प्रधान है। उसे पुत्र-परिवार आदि का परिग्रह भी इष्ट है—शास्त्रसम्मत है। अतएव ब्राह्मण-परम्परा के विद्वानों के पुस्तक-संग्रह प्रमुख रूप से व्यक्तिगत मालिकी के रहे हैं, और आज भी हैं । गुजरात, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल, मिथिला या दक्षिण के किसी भी प्रदेश में जाकर पुराने ब्राह्मण-परम्परा के संग्रह को हम देखना चाहें तो वे किसी-न-किसी व्यक्तिगत कुटुम्ब की मालिकी के ही मिल श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ ६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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