Book Title: Gunsthan Vishleshan Author(s): Himmatsinh Sarupriya Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf View full book textPage 5
________________ * DOOOOO 000000 000 0000000000 000000000000 66 २४८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ होने से एक अवर्णनीय आल्हाद अनुभव होता है। उसकी पर-रूप में स्वरूप की जो भ्रान्ति थी – इस काल में दूर हो जाती है । वह अन्तरात्मा में परमात्म भाव को देखने लगता है । घाम से परितापित पथिक को शीतल छाया का सुख -- जन्मान्ध रोगी को नेत्र लाभ, असाध्य व्याधि से मुक्त रोगी को जो सुख अनुभव होता है उससे भी अधिक सुख यह जीव सम्यक्त्व प्राप्ति से अनुभव करता है । २३ उपशान्ताद्धा के पूर्व समय में ( प्रथम स्थिति के चरम समय में) जीव विशुद्ध परिणाम से उस मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है, जो उपशान्ताद्धा के पूरे हो जाने पर उदय में आने वाले हैं । कोद्रव धान की शुद्धि विशेषवत् कुछ भाग विशुद्ध, कुछ अर्द्ध शुद्ध, कुछ अशुद्ध ही रहता है । उपशान्ताद्धा पूर्ण होने पर उक्त तीनों पुग्यों में से कोई एक पुज परिणामानुसार उदय में आता है। विशुद्ध पुज के उदय होने से क्षायोपशमिक सम् प्रकट होता है जो सम्यक्त्व मोहनीय होकर सम्यक्त्व का तो घात नहीं करता परन्तु देशघाती रसयुक्त होने से विशिष्ट श्रद्धानुरूप देश को रोकता है। किचित् मलिनता रहती है, चल दोष (रत्नत्रय की प्रतीति रहे परन्तु यह स्वकीय है, यह अन्य है) मल दोष (शंकादि मन लगाने) अगादोष (सम्यक्त्व में स्थिरता न रहे) आदि दोष रहते हैं। यदि जीव के परिणाम अशुद्ध उदय में आवे तो मिश्रमोहनीय (३ गुणस्थान) व यदि परिणाम अशुद्ध उदय में आये तो मिध्यात्व मोहनीय ( मिथ्यादृष्टि ) हो जाता है । उपशान्ताद्धा जिसमें जीव शान्त, प्रशान्त, स्थिर व पूर्णानन्द हो जाता है उसका जघन्य १ समय और उत्कृष्ट ६ आवलिका काल जब बाकी रहे तब किसी-किसी औपशमिक सम्यक्त्वी को विघ्न आ पड़ता है । शान्ति में भंग पड़ जाता है । अनन्तानुबंधी कषाय का उदय होते ही जीव सम्यक्त्व परिणाम को वमन कर मिध्यात्व की ओर झुकता है जब तक मिथ्यात्व को स्पर्श नहीं करता, उस समय वह सासादन सम्यग्दृष्टि कहाता है (जिसका कथन दूसरे गुणस्थान में किया है) । जब क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी क्षायिक सम्यक्त्व के सन्मुख हो मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय प्रकृति का तो क्षय कर दे परन्तु सम्यक्त्व मोहनीय के काण्डकछातादि क्रिया नहीं करता उसको कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि नाम दिया गया है क्योंकि वह मोहनीय कर्म के अन्तिम पुद्गल का वेदन कर रहा है। इसका जघन्य व उत्कृष्ट काल १ समय है। जिसके अनन्तर ही क्षायिक सम्यक्त्व का आविर्भाव हो जाता है । क्षायिक सम्यक्त्व - जब दर्शन मोहनीय की ३ प्रकृतियों का सर्वथा रूप सब निषेकों का क्षय हो जावे व अनन्तानुबंधी चतुष्क का भी सर्वथा क्षय हो जावे तब अत्यन्त निर्मल तत्त्वार्थ श्रद्धान जो प्रकट हो, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है । इस तरह से सम्यक्त्व के ५ भेद - औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, वेदक व सास्वादन होते हैं और भी प्रकार नीचे बतलायेंगे । सम्यक्त्व क्या है— पहचानें कैसे ? सम्यक् यह प्रशंसा वाचक शब्द है (अंचतेः क्वौ समचतीति सम्यगिति । अस्यार्थः प्रशंसा)२४ सम्यग् जीव सद्भाव:, विपरीताभिनिवेश रहित मोक्ष के अविरोधि परिणाम संवेगादि युक्त आत्मा का सद्बोध रूप परिणाम विशेष सम्यक्त्व कहलाता है जो मोहनीय प्रकृति के अनुवेदन बाद उपशम व क्षय से उत्पन्न होता है। दर्शन मोहनीय की ३ प्रकृतियों के क्षय व उपशम के सहचारी अनन्तानुबंधी प्रकृतियों का भी क्षय व उपशम है । २४ तत्त्वार्थ श्रद्धान् उसका लक्षण है। शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, आस्तिक्य इसकी पहचान है । प्रकार १. तत्त्व व उसके अर्थ में श्रद्धान रूप ( तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं ) प्रकार २. ( क ) निश्चय सम्यक्त्व - अनन्तगुणों के पुरंज रूप मुख्य गुण ज्ञान-दर्शन- चारित्रादि जिसके हैं— उस अखण्ड आत्मा में यथार्थ प्रतीति करना ६ उसका ज्ञायक स्वभाव है। जिससे 'स्व' 'पर' दोनों को जानकर अपने से विभावावस्था से हटकर स्वभाव में स्थित होता है। निश्चय नय में आत्मा ही ज्ञान-दर्शन- चारित्र है आत्मा में ही रत है वह सम्यग्दृष्टि है । २७ निश्चयानुसार आत्मविनिश्चिति ही सम्यग्दर्शन है । आत्मज्ञान ही सम्यक्बोध, आत्मस्थिति ही सम्यक्चारित्र है । यह सत्य की पराकाष्ठा है, आत्मदर्शन की स्वयं अनुभूति है। (ख) व्यवहार सम्यक्त्व - परन्तु उपरोक्त स्थिति तो उच्च चारित्रधारी महात्माओं की तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में होती है । उस लक्ष्य को पहुँचने के लिए उसमें सहायक निमित्त कारण देव, गुरु, धर्म होते हैं जिनमें प्रतीति रुचि रख जिनसे ज्ञात नवतत्त्वादि पदार्थों में श्रद्धान रखना व्यवहार सम्यक्त्व कहाता है । अभेद वस्तु को भेद रूप से उपचार से व्यवहृत करना व्यवहार है । २६ विपरीताभिनिवेश रहित जीव को जो आत्म-श्रद्धान हुआ उसके निमित्त देव-गुरु-धर्म २६ नवतत्त्वादि हुए उनमें श्रद्धान होने से इस निमित्त को SEPage Navigation
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