Book Title: Gujarat Me Jain Dharm Aur Jain Kala
Author(s): Harihar Sinh
Publisher: Z_Jain_Vidya_evam_Prakrit_014026_HR.pdf

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Page 2
________________ ६३ गुजरात में जैनधर्म और जैन कला में जैनधर्म के प्रभाव की स्पष्ट झलक मिलती है। उपर्युक्त शिलालेख के जूनागढ़ के एक गुफा में प्राप्त होने तथा उसमें जैन परिभाषिक शब्दों के अंकन होने से यह अनुमान किया जा सकता है कि उक्त गुफा में सम्भवतः किसी समय जैन श्रमण निवास करते थे। इस गुफा तथा जूनागढ़ के बाबा प्यारा की गुफाओं के जैन श्रमणों के लिए निर्मित होने की बात इससे भी पुष्ट होती है कि इनमें स्वस्तिक, भद्रासन, मीनयुगल, नन्दीपद कलश आदि महत्त्वपूर्ण जैन प्रतीकों का अंकन है। ये सभी जैन प्रतीक कल्याणकारी माने जाते हैं तथा इनका अंकन मथुरा के जैन स्तूप के आयागपट्टों पर भी हुआ है। गुजरात में जैनधर्म का प्रभाव इससे भी परिलक्षित होता है कि जैन आगमों की माथुरी वाचना (सन् ३००-३१३ ई.) के समय नागार्जुन ने वलभी (सौराष्ट्र) में जैनागमों को लिपिबद्ध करने का प्रयास किया।" गुप्तकाल में वलभी जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र था। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार इसी स्थान पर वीर निर्वाण संवत् ९८० (४५४ ई.) अथवा ९९३ (४६७ ई.) में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में जैन श्रमणों की एक संगीति बुलाई गई और जैनागमों को को लिपिबद्ध किया गया ।१२ जैनधर्म की विद्यमानता के पुरातात्त्विक प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। अकोटा से प्राप्त और संप्रति बड़ौदा संग्रहालय में सुरक्षित कांस्य जैन मूर्तियाँ इसके सबल प्रमाण हैं। इनमें ऋषभदेव और जीवन्त स्वामी की मूर्तियाँ गुप्तकालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं। सभी मूर्तियाँ धोती एवं अलंकार पहने हैं। इनकी अनग्नता से इनके श्वेतांबर होने का संकेत मिलता है । सम्भवतः इस काल तक श्वेतांबर परम्परा यहाँ प्रभावशाली हो गयी थी। वलभी के मैत्रक शासकों के राज्यकाल में जैनधर्म उन्नत अवस्था में था। शक संवत् ५३१ (६०९ ई.) में जैनग्रंथ विशेषावश्यकभाष्य की एक प्रति वलभी के एक जैन मन्दिर को भेंट की गई।१४ इस काल की एक अन्य घटना यह थी कि नयचक्र के ग्रंथकर्ता मल्लवादी ने एक धार्मिक वादविवाद में बौद्धों को पराजित किया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें 'वादी' की उपाधि प्रदान की गयी ।१५ जैन पट्टावलियों से भी इस काल में यहाँ जैनधर्म की विद्यमानता का संकेत मिलता है क्योंकि उनमें उल्लेख है कि वलभी के विनाश के समय जैन मूर्तियों को सुरक्षित स्थान पर रखने के लिए उन्हें श्रीमाल स्थानान्तरित किया गया तथा गंधर्ववादिवेताल शांतिसूरि ने इस दुर्दिन काल में जनसंघ की रक्षा की ।१६ आचार्य मेरूतुंग ने उक्त जैन मूर्तियों के सोमनाथ एवं श्रीमालपुर स्थानान्तरित करने की घटना को चामत्कारिक ढंग से वर्णित किया है ।१७ शत्रुजय माहात्म्य के रचयिता धनेश्वरसूरि वलभीनरेश शिलादित्य के सम परिसंवाद-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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