Book Title: Godwad ke Jain Shilalekh
Author(s): Ramvallabh Somani
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ ४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड . .. ................................................................. लेख में वणित मन्दिर राता महावीर मन्दिर से भिन्न रहा होगा। महावीर' मन्दिर में वि० सं० १३३५, १३३६, १३४५ एवं १३४६ के और शिलालेख हैं। ये दान सम्बन्धी लेख हैं। वि० सं० १३४५ वाले लेख में हठुडी ग्राम शब्द भी है। राता महावीर नाम भी इन लेखों में आता है । सेवाडी सेवाडी जिसे समीपाटी भी कहते हैं पूर्व मध्यकाल में अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है । इनमें वि० सं० ११६७, ११७२ एवं १२०० के लेख चौहान कटुकराज से सम्बन्धित हैं। वि० सं० ११६७ का लेख बाबन जिनालय में है जो बाजार के बीच में है। इस लेख में प्रदाडा, मेंदाचा, छेडिया ग्रामों के निवासियों द्वारा महाशासनिक पूववी के वंशज उपलराज के कहने पर दिया । वि० सं० ११७२ का लेख अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह शांतिनाथ मन्दिर की भींत पर है। इसमे वषोदेव बलाधिप का उल्लेख है जिसे राजसभा और महाजन सभा का सम्मान प्राप्त था। इसके पौत्र थल्लक को युवराज का जन मन्दिर की पूजा के निमित शिवरात्रि से दिन ८द्रम्म दान में दिये थे। ये दोनों लेख युवराज कटुकराज के शासनकाल के हैं। यह अश्वराज का पुत्र था। अश्वराज के बाद रत्नपाल शासक हुआ जिसका पुत्र रायपाल वि० सं० ११८६ से १२०२ तक शासक रहा था। सम्भवतः ११९८ से १२०० तक अश्वराज का पुत्र कटुकराज पुन: शासक हो गया था। इसका एक शिलालेख सिंह संवत् ३१ का भी मिलता है। सेवाडी से एक अन्य५ लेख वि० सं० १२१३ का और मिला है इसमें पार्श्वनाथ मन्दिर के नेचा के लिए दान देने की व्यवस्था है। नाडोल चौहान लक्ष्मण ने इसे राजधानी बनाया था। यहाँ का श्रेष्ठी शुभंकर बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। इमने 'अमारि घोषणा' कई शासकों से करवाई थी। इससे सम्बन्धित २ लेख वि० सं० १२०६ के रत्नपुर एवं किराडू से मिले हैं । दोनों में अन्त में लिखा है कि उक्त अमारि की घोषणा उक्त श्रेष्ठि परिवार के कहने पर की गई थी। वि०सं० १२१८ के आल्हण एवं इसी संवत् के राजकुमार कीर्तिपाल के दानपात्र भी बड़े प्रसिद्ध हैं। आल्हण के मंत्री, जैन सुकर्मा की प्रार्थना पर उसने संडेरकगच्छ के महावीर देवालय के निमित्त ५ द्रम्म दान में दिये। वि० सं० १२१८ का कीर्तिपाल का दानपत्र है जो नाडलाई के मन्दिर के लिए उसको दिये गये १२ ग्रामों में से प्रत्येक से २ द्रम्म देने की व्यवस्था का हैं। शिलालेखों एवं साहित्यिक सन्दर्भो से यहाँ कई प्रतिष्ठायें होने का उल्लेख मिलता है। वि० सं० ११८१ में संडेरकगच्छ के शालिभद्रसुरि द्वारा, बहदगच्छीय देवसूरि के शिष्य पद्मवन्द्रगणि द्वारा १२१५ में, संडेरकगच्छीय सुमतिसूरि द्वारा वि०सं० १२३७ में तपागच्छीय विजयदेव सूरि द्वारा १६८६ में प्रतिष्ठायें होने का उल्लेख मिलता है। वि० सं० १२१५ के शिलालेख में 'बीसाडा स्थाने महावीर चैत्ये' शब्द हैं। ये मूत्तियां आज नाडोल में हैं, सम्भवतः ये कहीं अन्यत्र से लाई गई हैं। १. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह, नं० ३१८ १६, २०. २. वही, सं० ३२५ :, एपिग्राफिया इण्डिया भाग XI, पृ० २६. ३. वही, सं० ३२३, पृ० ३१. ४. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह, सं० ३२६. ५. उक्त, सं० ३२७. ६. एपिग्राफिआ इण्डिया, भाग ११, पृ० ४३, ४६ ; मुनि जिनविजय, सं० ३४५, ३४४. ७. नाहर-I, सं० ८३६ ; एपिग्राफिआ इण्डिया, भाग ६ में प्रकाशित. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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