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गोडवाड़ का अधिकांश भाग जैन धर्म का केन्द्र रहा है। नाडोल माडलाई, बरकाना, सादड़ी, राणकपुर,
प्रतिहारों के अधीन था। चौहानों ने कालान्तर में दुडिया राठौड़ों के वि० सं०
बाली, हठंडी सेवाडी, सांडेराव आदि के प्राचीन मन्दिर बड़े प्रसिद्ध हैं। यह क्षेत्र प्रारम्भ में सम्भवतः इनके कमजोर हो जाने पर राठौड़ों और पौहानों ने अपने राज्य स्थापित किये अपनी शक्ति का काफी विस्तार किया और राठौड़ों को उनके आधीन रहकर रहना पड़ा। १२७४ और वि० १२१८ के लेख सिरोही क्षेत्र में अवश्य मिले हैं, किन्तु वे भी परमारों गोडवाड़ पर कालान्तर में वि० सं० १४३० के आसपास मेवाड़ के महाराणा लाखा का राज्य वहाँ बराबर बना रहा और वि० सं० १८३२ (१७७५ ई०) के आसपास यह भाग राजस्थान के बनने तक यह भाग फिर मारवाड़ में ही रहा ।
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सामन्तों के रूप में हैं। अधिकार हो गया जिनका मारवाड़ का भाग बना ।
गोड़वाड़ के जैन शिलालेख
श्री रामवल्लभ सोमानी कानूनगो भवन,
कल्याणजी का रास्ता, जयपुर (राज० )
राता महावीर (हडी)
ठंडी और राता महावीर के लेख इस क्षेत्र में बड़े प्रसिद्ध हैं। हण्डी का बालाप्रसाद का वि० सं० १०५३ (१६७ ई०) के लेख में स्थानीय राठौड़ शासकों की वंशावली दी है और कई महत्वपूर्ण सूचनाएँ राठौड़ धवल के सम्बन्ध में हैं यथा मेवाड़ के शासक को मुंज द्वारा हारने पर शरण देना, चौहान महेन्द्र को गुजरात के शासक दुर्लभराज के आक्रमण कर देने पर सहायता देना, आबू के धरणीवराह को मूलराज चालुक्य के आक्रमण कर देने पर उचित सहायता देना आदि आदि । इस शिलालेख में कुछ साधुओं ( बलभद्राचार्य, वासुदेव शांतिभद्राचार्य आदि) का उल्लेख है। इसी शिला पर अन्य प्राचीन लेखों वि० सं० १७३ (२१६ ए०डी०) एवं १२६ (२३९ ई०) को भी उद्धृत किया गया है । सम्भवतः इस प्राचीन शिलालेख को इसलिए पुनः वि० सं० १०५३ के लेख के साथ खोदा गया हो कि इसमें वर्णित दान को बालाप्रसाद ने भी लागू किया था ।
इस मन्दिर में मूल रूप से ऋषभदेव की प्रतिमा रही होगी जैसा कि उक्त लेख से ज्ञात होता है या इस
१. (अ) एपिचि इण्डिया, भाग १० पृ० १० १६.
(ब) मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादितः प्राचीन जैन लेख संग्रह ले० सं० २१८.
२. (अ) लेखक द्वारा लिखित हिस्ट्री ऑफ मेवाड़, पृ० ५७
(ब) ए० के० मजूमदार - चालुक्याज ऑफ गुजरात, पृ० २८ ;
(स) प्रतिपाल भाटिया दी परमा, पृ० ४०-४.
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
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.. ................................................................. लेख में वणित मन्दिर राता महावीर मन्दिर से भिन्न रहा होगा। महावीर' मन्दिर में वि० सं० १३३५, १३३६, १३४५ एवं १३४६ के और शिलालेख हैं। ये दान सम्बन्धी लेख हैं। वि० सं० १३४५ वाले लेख में हठुडी ग्राम शब्द भी है। राता महावीर नाम भी इन लेखों में आता है । सेवाडी
सेवाडी जिसे समीपाटी भी कहते हैं पूर्व मध्यकाल में अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है । इनमें वि० सं० ११६७, ११७२ एवं १२०० के लेख चौहान कटुकराज से सम्बन्धित हैं। वि० सं० ११६७ का लेख बाबन जिनालय में है जो बाजार के बीच में है। इस लेख में प्रदाडा, मेंदाचा, छेडिया ग्रामों के निवासियों द्वारा महाशासनिक पूववी के वंशज उपलराज के कहने पर दिया । वि० सं० ११७२ का लेख अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह शांतिनाथ मन्दिर की भींत पर है। इसमे वषोदेव बलाधिप का उल्लेख है जिसे राजसभा और महाजन सभा का सम्मान प्राप्त था। इसके पौत्र थल्लक को युवराज का जन मन्दिर की पूजा के निमित शिवरात्रि से दिन ८द्रम्म दान में दिये थे। ये दोनों लेख युवराज कटुकराज के शासनकाल के हैं। यह अश्वराज का पुत्र था। अश्वराज के बाद रत्नपाल शासक हुआ जिसका पुत्र रायपाल वि० सं० ११८६ से १२०२ तक शासक रहा था। सम्भवतः ११९८ से १२०० तक अश्वराज का पुत्र कटुकराज पुन: शासक हो गया था। इसका एक शिलालेख सिंह संवत् ३१ का भी मिलता है। सेवाडी से एक अन्य५ लेख वि० सं० १२१३ का और मिला है इसमें पार्श्वनाथ मन्दिर के नेचा के लिए दान देने की व्यवस्था है। नाडोल
चौहान लक्ष्मण ने इसे राजधानी बनाया था। यहाँ का श्रेष्ठी शुभंकर बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। इमने 'अमारि घोषणा' कई शासकों से करवाई थी। इससे सम्बन्धित २ लेख वि० सं० १२०६ के रत्नपुर एवं किराडू से मिले हैं । दोनों में अन्त में लिखा है कि उक्त अमारि की घोषणा उक्त श्रेष्ठि परिवार के कहने पर की गई थी। वि०सं० १२१८ के आल्हण एवं इसी संवत् के राजकुमार कीर्तिपाल के दानपात्र भी बड़े प्रसिद्ध हैं। आल्हण के मंत्री, जैन सुकर्मा की प्रार्थना पर उसने संडेरकगच्छ के महावीर देवालय के निमित्त ५ द्रम्म दान में दिये। वि० सं० १२१८ का कीर्तिपाल का दानपत्र है जो नाडलाई के मन्दिर के लिए उसको दिये गये १२ ग्रामों में से प्रत्येक से २ द्रम्म देने की व्यवस्था का हैं।
शिलालेखों एवं साहित्यिक सन्दर्भो से यहाँ कई प्रतिष्ठायें होने का उल्लेख मिलता है। वि० सं० ११८१ में संडेरकगच्छ के शालिभद्रसुरि द्वारा, बहदगच्छीय देवसूरि के शिष्य पद्मवन्द्रगणि द्वारा १२१५ में, संडेरकगच्छीय सुमतिसूरि द्वारा वि०सं० १२३७ में तपागच्छीय विजयदेव सूरि द्वारा १६८६ में प्रतिष्ठायें होने का उल्लेख मिलता है। वि० सं० १२१५ के शिलालेख में 'बीसाडा स्थाने महावीर चैत्ये' शब्द हैं। ये मूत्तियां आज नाडोल में हैं, सम्भवतः ये कहीं अन्यत्र से लाई गई हैं।
१. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह, नं० ३१८ १६, २०. २. वही, सं० ३२५ :, एपिग्राफिया इण्डिया भाग XI, पृ० २६. ३. वही, सं० ३२३,
पृ० ३१. ४. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह, सं० ३२६. ५. उक्त, सं० ३२७. ६. एपिग्राफिआ इण्डिया, भाग ११, पृ० ४३, ४६ ; मुनि जिनविजय, सं० ३४५, ३४४. ७. नाहर-I, सं० ८३६ ; एपिग्राफिआ इण्डिया, भाग ६ में प्रकाशित.
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गोड़वाड़ के जैन शिलालेख
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नाडलाई
___ नाडलाई में कई प्राचीन मन्दिर हैं । ऐसी मान्यता है कि संडेरकगच्छ ने यशोभद्रसूरि यहाँ १०वीं शताब्दी में पधारे थे तब से यह क्षेत्र संडेरकगच्छ का बड़ा केन्द्र रहा है। यहाँ के आदिनाथ मन्दिर में वि० सं० ११८६, ११६५, १२००, १२०२ के महाराजा रायपाल के राज्य के लेख हैं। वि० सं० १२०० का एक अन्य लेख इसी ग्राम के एक अन्य मन्दिर से इसी राजा का और मिला है। इन लेखों में उसने गुजरात के चालुक्य राजा को अपना स्वामी होने का उल्लेख नहीं किया जो विशेष उल्लेखनीय है । वि० सं ११८६ के लेख में रामपाल की राणी मीनलदेवी और उसके पुत्रों द्वारा दान देने का उल्लेख है। वि० सं० ११९४ का लेख काफी लम्बा है। इसमें गुहिलोत ठाकुर उद्धरण के पुत्र राजदेव द्वारा अपनी स्थानीय आय, जो बणजारों से प्राप्त होती थी, में से आधा भाग जैन मन्दिर के लिये दिया । वि० सं० १२०० के लेख में रथयात्रा की व्यवस्था के लिये दान देने की व्यवस्था है । इसी तिथि के अन्य लेख में महावीर मन्दिर की पूजा के निमित्त समस्त महाजनों द्वारा दान देने की व्यवस्था है । वि० सं० १२०२ का लेख वणजारों द्वारा अलग से दान की व्यवस्था का है। इसमें देशी एवं बाहर के आये दोनों प्रकार के बणजारों का उल्लेख है (अभिनव पुरीय बदार्या अत्रत्यषु समस्तबणजारकेषु देशी मिलित्वा) । वि० सं० १२१५ का लेख मेडलोक प्रतापसिंह से सम्बन्धित है । यह स्थानीय शासक था। इसने नाडलाई के जैन मन्दिर के लिये दान दिया। इस लेख में विशेष रुचिकर बात यह है कि यह दान समस्त महाजन, ब्राह्मण एवं भट्टारकों की सहमति से बदार्या की मंडपिका से दिया गया था (बदार्या मंडपिका मध्यात् समस्त महाजन भट्टारक ब्राह्मगादय प्रमुखं प्रदत्त)। ब्राह्मण एवं भट्टारक जो सम्भवतः शैव मन्दिरों के आचार्य थे द्वारा भी इस प्रकार के दान में सहमति देना उल्लेखनीय था।
पुरातन प्रबन्ध संग्रह में रावलाषण से सम्बन्धित प्रबन्ध में इसकी वश्यकुल की पत्नी द्वारा उत्पन्न पुत्र को भण्डारी गोत्र दिया गया था। वि० सं० १५५७ एवं १६७४ के नाडलाई के मन्दिरों के लेखों में भण्डारी सामर के परिवार का विस्तार से उल्लेख है। वि० सं० १५५७ का लेख मेवाड़ के इतिहास में उल्लेखनीय है । यह पहला लेख है जिसमें महाराजकुमार पृथ्वीराज (रायमल के पुत्र) के गोडवाड पर शासन करने का उल्लेख किया गया है । इसी लेख में 'श्री उकेशवंशे राय भंडारी गोत्रे राउल लाषण पुत्र भं० दुदु वंशे' शब्द होने से पुरातन प्रबन्ध संग्रह की उक्त बात की पुष्टि होती है । इस लेख में मन्दिर में देववुलिका बनाने का उल्लेख है । दूसरा लेख वि० सं० १६७४ (१६१८ ए.डी.) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । जहाँगीर के शासनकाल में यह क्षेत्र गजनीखाँ जालोरी के आधीन थोड़े समय तक रहा था जिसने राणकपुर सहित सब मन्दिरों में तोड़-फोड़ की थी। १६१५ ई० में सन्धि हो जाने के बाद जब मन्दिरों का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ किया तब सबसे पहले नाडलाई’ का जीर्णोद्धार पूरा होकर वि० सं० १६७४ (१६१८ ई०) में तपागच्छ के विजयदेव सूरि से प्रतिष्ठा कराई गई थी। यहाँ के अन्य मन्दिर का जीर्णोद्धार वि० सं० १६८६ में किया गया। राणकपुर का जीर्णोद्वार १६२१ ई० में पूर्ण हुआ था।
१. श्मशान के पास एक प्राचीन स्तूप पर 'सूरि यशोभद्राचार्यादि' शब्द है (जैन तीर्थसर्व संग्रह, भाग १, खण्ड II,
पृ० २२३. २. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख, सं० ३३१, ३३२, ३३, ३४. ३. दशरथ शर्मा-अरली चौहान डाडनेस्टीज, पृ० १३१. ४. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख सं० ३३२. ५. गुजरातना ऐतिहासिक लेखा III सं० १४८. ६. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह २३७ एवं ३४१. ७. वही, सं० ३४१. ८. जैन सर्वतीर्थ संग्रह, भाग I, खण्ड II पृ० २२४.
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________________ 46 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड यहां के ऋषभदेव के मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है कि इसे यशोभद्रसूरि मन्त्रशक्ति से वल्लभी लाये थे। लावण्यसमय ने अपनी तीर्थमाला में 'वल्लभी पुरी थी आणियो ऋषभदेव प्रसाद' वर्णित किया है। ये सब प्रसंग भक्तों की श्रद्धा को प्रदर्शित करते हैं। सांडेराव सांडेराव में चौहान कालीन 2 जैन लेख सं 1221 एवं 1236 के मिले हैं। ये दोनों लेख महावीर मन्दिर में हैं वि० सं० 1221 का लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें महावीर के जन्म के कल्याणक पर्व के निमित्त महाराणी आनलदेवी राष्ट्रकूट पातु केल्हण आदि द्वारा दान देने की व्यवस्था है / स्मरण रहे कि आज भी भगवान महावीर का- जन्मदिवस 'महावीर जयंति' रूप में मानते हैं। वि० सं० 1236 के लेख में केल्हण की राणी उसके दो भाई राल्हा और पाल्हा द्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर के लिये दान देने का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है कि वि० सं० 1221 का लेख जो सभा मण्डप में लगा रहा है या तो किसी अन्य मन्दिर का होगा या वि० सं० 1221 के बाद मूलनायक प्रतिमा अन्य विराजमान कराई गई हो। इस सम्बन्ध में मूलनायक प्रतिमा के बदलने की बात ठीक लगती है। सुल्तान मोहम्मद गोरी के नाडोल पर आक्रमण ! वि० सं० 1234 में करने की पुष्टि पृथ्वीराज विजय आदि ग्रन्थों से होती है। अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर की मूलनायक प्रतिमा भंग करने पर अन्य मूर्ति बिराजमान कराई गई हो। घाणेराव-घाणेराव मुछाला महावीर मन्दिर के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहाँ के कई प्राचीन शिलालेख मिले हैं किन्तु वे अभी सम्पादित नहीं हुए हैं। एक लेख हाल ही में 'वरदा' में श्री रत्नचंद्र अग्रवाल ने सम्पादित किया है इसमें मन्दिर में 'नेचा' की व्यवस्था का उल्लेख है / मुछाला महावीर के सम्बन्ध में कई किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। राणकपुर-राणकपुर का अन्य जैन मन्दिर बहुत उल्लेखनीय है। इस मन्दिर का निर्माण श्रेष्ठी धरणाशाह द्वारा कराया गया था वि० सं० 1466 का प्रसिद्ध शिलालेख इस मन्दिर में लगा हुआ है। सोम सौभाग्य काव्य में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा का विस्तार से उल्लेख है। महाकवि हेम ने राणकपुर स्तवन नामक पद्य में, जो वि० सं० 1466 में विरचित किया था, इस मन्दिर का विस्तार से उल्लेख है। मेवाड़ के इतिहास के अध्ययन के लिए राणकपुर के वि० सं० 1466 के शिलालेख का बहुत उल्लेख करते हैं। इसमें दी गई वंशावली अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय है। महाराणा कुंभा के सम्बन्ध में दी गई सूचनायें एवं विरुदावली विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें कुंभा द्वारा सारंगपुर, नागोर, गागरोन, नरायणा, अजमेर, मंडोर, माण्डलगढ़, बूंदी, खाटू (श्यामजी), चाटसू, जाता दुर्ग जीतने का उल्लेख है। महाराणा कुंभा की आज्ञा से धरणाशाह ने मन्दिर बनाया था। इसके परिवार द्वारा सालेरा, पिंडवाडा और अजारी के जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराने का भी उल्लेख मिलता है। इस मन्दिर में लगे लेखों के अनुसार निर्माण कार्य वि० सं० 1515 तक चलता रहा / मेघनाद मंडप अहमदाबाद उस्मानपुर निवासी एक जैन परिवार ने बनाया था जिसने 1621 ई० में इसका जीर्णोद्धार भी कराया था। बरकाणा बरकाणा के मन्दिरों में 2 अप्रकाशित शिलालेख हैं / एक लेख महाराणा जगतसिंह एवं दूसरा लेख महाराणा जगतसिंह II के राज्य के हैं। दोनों लेख प्रकाशित हैं / मैं इन्हें शीघ्र ही सम्पादित कर रहा हूँ। इन लेखों में यहां होने वाले मेले के अवसर पर छूट देने का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त नाणा बेड़ा, जाकोडा, कोरंटा, लालराई, खींवाणदी, सेंसली, बाली, खोमेल, खुडाला आदि से भी प्राचीन जैन लेख मिले हैं। 1. इस सम्बन्ध में एक शैव योगी और यशोभद्रसूरि के मध्य वाद-विवाद होने और दोनों द्वारा मन्दिर लाने की कथा प्रचलित है। 2. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह।