Book Title: Gita Uska Shankarbhashya aur Jain Darshan Author(s): Rameshchandra Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 8
________________ गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन-दर्शन ११५ सोना । परन्तु अज्ञानी सब द्रव्यों में रागी है, अतः कर्मों के मध्यगत होता हुआ कर्म रूपी रज से उसी प्रकार लिपा होता है, जिस प्रकार कीचड़ के मध्य में पड़ा हुआ लोहा है । जिस प्रकार यद्यपि शङ्ख विविध प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का भक्षण करता है तो भी उसका श्वेतपना काला नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार यद्यपि ज्ञानी विविध प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों का उपभोग करता है, तो भी उसका ज्ञान अज्ञानता को प्राप्त नहीं कर सकता और जिस समय वही शंख उस श्वेत स्वभाव को छोड़कर कृष्णभाव को प्राप्त हो जाता है, उस समय वह जिस प्रकार श्वेतपने को छोड़ देता है, उसी प्रकार ज्ञानी जिस समय उस ज्ञान स्वभाव को छोड़ कर अज्ञान स्वभाव से परिणत होता है, उस समय अज्ञानभाव को प्राप्त हो जाता है | गीता में कहा गया है जिसकी समस्त आशायें दूर हो गयी हैं और जिसने चित्त और शरीर को भली-भाँति वश में कर लिया है तथा जिसे समस्त परिग्रह का त्याग है, वह शरीर स्थिति मात्र के लिए किए जाने वाले कर्मों को करता हुआ पाप को प्राप्त नहीं होता । यहाँ किल्विष शब्द का अर्थ शङ्कराचार्य ने पाप के साथ पुण्य को भी लिया है । उनके अनुसार बन्धनकारक होने से धर्म भी मुमुक्षु के लिए पाप है । इसी बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने दृष्टान्त देकर समझाया है जिस प्रकार इस लोक में कोई पुरुष आजीविका के निमित्त राजा की सेवा करता है तो राजा भी उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग देता है । इसी प्रकार जीव नामक पुरुष सुख के निमित्त कर्म रूपी रज की सेवा करता है, तो वह कर्म रूपी रज भी उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग देता है । जिस प्रकार वही पुरुष वृत्ति के निमित राजा की सेवा नहीं करता है तो राजा उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग नहीं देता है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव विषयों के लिए कर्म रूपी रज की सेवा नहीं करता है तो वह कर्म रूपी रज भी उसके लिए सुख उपजाने वाले विविध प्रकार के भोग नहीं देता । गीता में कहा गया है कि जो अपने आप मिले हुए पदार्थ से सन्तुष्ट है, जो (शीतोष्णादि) द्वन्द्वों से अतीत है अर्थात् द्वन्द्वों से जिसके चित्त में विषाद नहीं होता, जो ईर्ष्या से रहित है एवं सिद्धि तथा असिद्धि में समान है । वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता ! प्रवचनसार में कहा गया है कि इसलोक से निरपेक्ष और परलोक की आकांक्षा से रहित साधु कषाय रहित होता हुआ योग्य आहार विहार करने वाला होता है। मुनि की आत्मा परद्रव्य का ग्रहण न करने से निराहार स्वभाव वाली है । वही उनका अन्तरङ्ग तप है। मुनि निरन्तर १. समयसार - २१८-२१९ २. निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् || गीता ४।२० ३. किल्बिषम् अनिष्टरूपं पापं धर्म च । धर्मः अपि मुमुक्षोः किल्विषम् एव बन्धापादकत्वात् ॥ वही शाङ्करभाष्य ४. समयसार - २२४-२२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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