Book Title: Gita Uska Shankarbhashya aur Jain Darshan
Author(s): Rameshchandra Jain
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 9
________________ रमेशचन्द जैन उसी अन्तरङ्ग तप की इच्छा करते हैं और एषणा के दोषों से रहित जो भिक्षावृत्ति करते हैं, उसे सदा अन्य अर्थात् भिन्न समझते हैं, इसलिए वे आहार ग्रहण करते हुए भी निराहार हैं। गीता के शाङ्करभाष्य में 'श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञान यज्ञः ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम् उद्धरण द्वारा द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ की श्रेष्ठता बतलाई गई है। ज्ञान को पाकर परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। गीता में देवयज्ञ के साथ ज्ञानयज्ञ का भी निरूपण है। योगीजन समय रूपी अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं अर्थात् इन्द्रियों का संयम करते हैं। आचार्य रविषण ने ज्ञानयज्ञ का धर्मयज्ञ के रूप में निरूपण किया है। तदनुसार आत्मा यजमान है, शरीर वेदी है, सन्तोष साकल्य है। मस्तक के बाल कुशा हैं, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है / शुक्लध्यान प्राणायाम हैं। सिद्ध पद की प्राप्ति होना फल है, सत्य बोलना स्तम्भ है, तप अग्नि है। चंचल मन पशु हैं और इन्द्रियाँ समिधायें हैं। इन सबसे यज्ञ करना चाहिए, यही धर्मयज्ञ है। इस प्रकार गीता की विचारधारा और जैनदर्शन में अनेकविध साम्य दृष्टिगोचर होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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