Book Title: Gita Uska Shankarbhashya aur Jain Darshan Author(s): Rameshchandra Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 6
________________ गीता, उसका शाङ्करभाष्य और जैन-दर्शन ११३ द्वारा अनिवार्य विषयों को ग्रहण करता हुआ प्रसाद को प्राप्त होता है। नियमसार में रागादि पर विजय प्राप्त करने वाले को ही योगी कहा है रागादी परिहारे अप्पाणं जो दु जुजदे साहू। सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य कह हवे जोगो ॥ नियमसार-१३७ जो साधु अपने आपको रागादि के परिहार में लगाता है अर्थात् रागादि विकारी भावों पर विजय प्राप्त करता है। वही योगभक्ति से युक्त होता है। अन्य साधु के योग कैसे हो सकता है ? जो मुनि राग रूप परिग्रह से युक्त हैं और जिनभावना से रहित केवल बाह्य रूप से निर्ग्रन्थ हैं, नग्न हैं, वे पवित्र जिनशासन में समाधि और बोधि को नहीं पाते हैं । गीता के अनुसार प्रसन्नता को प्राप्त होने पर यति के समस्त दुःखों की हानि होती है तथा प्रसन्नचित्त वाले की बुद्धि स्थिर हो जाती है । ज्ञानार्णव में कहा गया है कि जिस मुनि का चित्त स्थिरीभूत है, प्रसन्न है और ज्ञान की वासना सहित है। उस मुनि के साध्य अर्थात् स्वरूपादि की प्राप्ति आदि कार्य सिद्ध ही हैं। अतएव उस मुनि को बाह्य तपादिक से काय को दंड देने से कोई लाभ नहीं है। गीता के अनुसार अपने-अपने विषय में विचरने वाली इन्द्रियों में से जिस जिसके पीछे मन जाता है, वह उसकी प्रज्ञा को हर लेता है, जिस प्रकार जल में नौका को वायु हर लेता है* 1 ज्ञानार्णव में भी कहा गया है कि जिनका आत्मा विषयों से ठगा गया है अर्थात् विषयों में मग्न हो गया है। उनकी विषयेच्छा तो बढ़ जाती है और सन्तोष नष्ट हो जाता है तथा विवेक भी विलीन हो जाता है। गीता में जिसने इन्द्रियों को अपने विषयों में जाने से सब प्रकार से रोका है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित कही गयी है। ज्ञानार्णव में भी चित्त को स्थिर करने (या बुद्धि को प्रतिष्ठित करने) का उपदेश दिया गया है त्वामेव वञ्चितुं मन्ये प्रवृत्ता विषया इमे। स्थिरीकुरु तथा चित्तं यथतैर्न कलक्यते ॥ २७।२७ हे आत्मन् ! ये इन्द्रियों के विषय तुझको ही ठगने के लिए प्रवृत्त हुए हैं, ऐसा मैं मानता हूँ, इस कारण चित्त को ऐसा स्थिर करो कि उन विषयों से कलङ्कित न हो। गीता का यह पद्य अत्यन्त प्रसिद्ध है१. गीता ६४ २. भावपाहुड-७२ ३. भगवद्गीता ६५ ४. ज्ञानार्णव २२।२७ * भगवद्गीता २०६७ ५. ज्ञानार्णव २०१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9