Book Title: Germany me Jain Dharm ke Kuch Adhyeta Author(s): Jagdishchandra Jain Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 3
________________ साहित्यकी ओर विशेष रूपसे आकर्षित हुए थे। “ऑन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बर जैनाज इन गुजरात" नामक अपनी लघु किन्तु अत्यन्त सारभित रचनामें उन्होंने जैन कथाओंकी सराहना करते हए लिखा है कि यदि जैन लेखक इस ओर प्रवृत्त न हुए होते तो भारतकी अनेक कथायें विलुप्त हो जातीं। हैल्मुथ फोन ग्लाजनेप (१८९१-१९६३) ट्युबिन्गन विश्वविद्यालयमें धर्मोके इतिहासके प्रोफेसर रहे हैं। वे धर्मके पण्डित थे। याकोबीके प्रमुख शिष्योंमें थे और उन्होंने लोकप्रिय शैलीमें जैनधर्मके सम्बन्धमें अनेक पुस्तकें लिखी हैं जिनके उद्धरण आज भी दिये जाते हैं। उन्होंने डेर जेनिसगुस (दि जैनिज्म) और डि लेहरे फोम कर्मन इन डेर फिलोसोफी जैनाज (दि डॉक्ट्रोन आव कर्म इन जैन फिलोसोफी) नामक महत्वपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की। पहली पुस्तक 'जैनधर्म के नामसे गुजरातीमें और दूसरी पुस्तकका अनुवाद अंग्रजी तथा हिन्दीमें प्रकाशित हुआ । उनकी इण्डिया, ऐज सीन वाई जर्मन थिंकर्स (भारत, जर्मन विचारकोंकी दृष्टिमें) नामक पुस्तक १९६० में प्रकाशित हुई। ग्लाजनेपने अनेक बार भारतकी और अनेक विद्वानोंसे सम्पर्क स्थापित किया। उनके दिल्ली आगमन पर जैन समाजने उनका स्वागत किया। उनकी एक निजी लाइब्ररी थी जो द्वितीय विश्व युद्धमें बम वर्षाके कारण जलकर ध्वस्त हो गई। लुडविग आल्सडोर्फ-(१९०४-१९७८) जर्मनीके एक बहुश्रुत प्रतिभाशाली मनीषी थे जिनका निधन अभी कुछ समय पूर्व २८ मार्च १९६८ को हुआ। उनके लिये भारतीय विद्या कोई सीमित विषय नहीं था। इसमें जनधर्म, बौद्धधर्म, वेदविद्या, अशोकीय शिलालेख, मध्यकालीन भारतीय भाषायें, भारतीय साहित्य, भारतीय कला तथा आधुनिक भारतीय इतिहास आदिका भी समावेश था । आल्सडोर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालयमें जर्मन भाषाके अध्यापक रह चुके हैं। यहाँ रहते हये उन्होंने संस्कृतके एक गुरुजीसे संस्कृत का अध्ययन किया था। उसके बाद अनेक बार उन्हें भारत यात्राका अवसर मिला। जितनी बार वे भारत आये, उतनी ही बार अपने ज्ञानमें वृद्धि करनेके लिए कुछ-न-कुछ समेट कर अवश्य ले गये। अनेक प्रसंग ऐसे उपस्थित हये जबकि पंडित लोग अनार्य समझकर. उनके मन्दिर प्रवेश पर रोक लगानेकी करते । लेकिन वे झटसे संस्कृतका कोई श्लोक सूनाकर अपना आर्यत्व सिद्ध करनेसे न चुकते । आल्सडोर्फने अपने राजस्थान, जैसलमेर आदिकी यात्राओंके रोचक वृत्तांत प्रकाशित किये हैं। आल्सडोर्फने विद्यार्थी अवस्थामें जर्मन विश्वविद्यालयोंमें भारतीय विद्या, तुलनात्मक भाषाशास्त्र, अरबी, फारसी, आदिका अध्ययन किया । वलायमानके सम्पर्क में आये और याकोबीसे उन्होंने जैनधर्मका अध्ययन करनेकी अभूत पूर्व प्रेरणा प्राप्त की। यह याकोबीकी प्रेरणाका ही फल था कि वे पुष्पदन्तके महापुराण नामक अपभ्रंश ग्रन्थ पर काम करनेके लिए प्रवृत्त हुए जो विस्तृत भूमिका आदिके साथ १९३७ में जर्मनमें प्रकाशित हुआ। आल्सडोर्फ शूबिंगको अपना गुरु मानते थे । जब तक वे जीवित रहे, उनके गुरुका चित्र उनके कक्षकी शोभा बढ़ाता रहा । उन्होंने सोमप्रभसूरिके कुमारवालपडिबोह नामक अप्रभ्रंश ग्रंथ पर शोध प्रबन्ध लिख कर पी-एच० डी० प्राप्त की। १९५० में शब्रिगका निधन हो जाने पर वे हैम्बर्ग विश्वविद्यालयमें भारतीय विद्या विभागके अध्यक्ष नियुक्त किये गये और सेवानिवृत्त होनेके बाद भी अन्तिम समय तक कोई न कोई शोधकार्य करते रहे । अपने जर्मनी आवास कालमें इन पंक्तियोंके लेखकको आल्सडोर्फसे भेंट करनेका अनेक बार अवसर मिला और हर बार उनकी अलौकिक प्रतिभाकी छाप मन पर पड़ी। किसी भी विषय पर उनसे चर्चा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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