Book Title: Germany me Jain Dharm ke Kuch Adhyeta
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf

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________________ जर्मनीमें जैनधर्मके कुछ अध्येता डा० जगदीश चन्द्र जैन, बम्बई उन्नीसवी शताब्दीका आरम्भ यूरोपमें ज्ञान-विज्ञानकी शताब्दीका युग रहा है । यह समय था जब जर्मनीके क्रीडरीख श्लीगलको संस्कृत पढ़ने का शौक हुआ और उन्होंने पेरिस पहुँच कर हिन्दुस्तान से लौटे हुए किसी सैनिकसे संस्कृतका अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने द लैंगवेजेज एण्ड विजडम ऑफ द हिन्दूज (हिन्दूओंकी भाषायें और प्रज्ञा) नामक पुस्तक प्रकाशित कर भारतकी प्राचीन संस्कृतसे यूरोप वासियोंको अवगत कराया । इसी समय फ्रीडरीखके लघु भ्राता औगुस्ट विलहेल्म इलीगलने अपने ज्येष्ठ भ्रातासे प्रेरणा पाकर संस्कृतका तुलनात्मक गम्भीर अध्ययन किया और वे वॉन विश्वविद्यालय में १८१८ में स्थापित भारतीय विद्या चेयरके सर्वप्रथम प्रोफेसर नियुक्त किये गये । मैक्समूलर इस शताब्दी के भारतीय विद्याके एक महान पण्डित हो गये हैं जिन्होंने भारतकी सांस्कृतिक देनको सारे यूरोपमें उजागर किया । ऋग्वेदका सायण भाष्यके साथ उन्होंने सर्वप्रथम नागरी लिप्यन्तर किया और जर्मन भाषामें उसका अनुवाद प्रकाशित किया । इंग्लैण्ड में सिविल सर्विसमें जानेवाले अंग्रेज नवयुवकों के मार्गदर्शनके लिये उन्होंने कैम्ब्रिज लैक्चर्स दिये जो इण्डिया, ह्वाट इट कैन टीच अस ( भारत हमें क्या सिखा सकता है) नामसे प्रकाशित हुए । 'सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट' सीरीजके सम्पादनका श्रेय मैक्समूलरको ही हैं जिसके अन्तर्गत भारतीय विद्यासे सम्बन्धित अनेकानेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए । यूरोप में जैनविद्याके अध्येताओं में सर्वप्रथम हरमन याकोबी (१८५०-१९३७) का नाम लिया जायेगा । वे अलब्र ेख्त बेबरके शिष्य थे जिन्होंने सर्वप्रथम मूलरूपमें जैन आगमोंका अध्ययन किया था । याकोबीने वराहमिहिर के लघु जातक पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी० एच डी० प्राप्त की । केवल २३ वर्षकी अवस्थामें जैन हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज में वे भारत आये और वापिस लौटकर उन्होंने 'सेक्रेड बुक्स आफ दी ईस्ट' सीरीजमें आचारांग और कल्पसूत्र तथा सूत्रकतांग और उत्तराध्ययन आगमोंका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया । निःस्सन्देह इन ग्रन्थोंके अनुवादसे देश-विदेशमें जैनविद्याके प्रचार में अपूर्व सफलता मिली । यूरोपके विद्वानोमें जैनधर्म और बौद्धधर्मको लेकर अनेक भ्रांतियाँ और वादविवाद चल रहे थे । उस समय याकीबीने जैन धर्म और बौद्धधर्म ग्रन्थोंके तुलनात्मक अध्ययन द्वारा बौद्धधर्मके पूर्व जैनधर्मका अस्तित्व सिद्ध करके इन भ्रांतियों और विवादोंकों निर्मूल करार दिया । जैन आगमोंके अतिरिक्त, प्राकृत तथा साहित्य के क्षेत्रमें उन्होंने पथ प्रदर्शनका कार्य किया । याकोबीने जैन आगम साहित्यकी टीकाओं में से कुछ महत्त्वपूर्ण कथाओंको चुनकर आउसगेवेल्टे ऐरजेकलुन्गन इम महाराष्ट्र (सेलेक्टेड स्टोरीज इन महाराष्ट्री ) नामसे प्रकाशित की। इन कथाओंके सम्पादन के संग्रह में प्राकृतका व्याकरण और शब्दकोष भी दिया गया । १९१४ में याकाबीने दूसरी बार भारतकी यात्रा की । अबकी बार हस्तलिखित जैन ग्रन्थोंकी खोज में वे गुजरात और कठियावाड़की ओर गये । स्वदेश वापिस लौटकर उन्होंने भविसत्तकहा और - ५११ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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