Book Title: Germany ke Jain Manishi Dr Harman Jacobi
Author(s): Pavan Surana
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf

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________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन ६३ जैन हस्तलिपियों आदि को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यह यात्रा नवयुवक जेकोबी की दिशा निर्धारक बनी | राजस्थान आदि के विभिन्न प्राचीन जैन संस्थानों, जैन साधु-सन्तों एवं विद्वानों से व्यक्तिगत परिचय एवं चर्चा ने जैन धर्म तथा दर्शन को विदेशी होते हुए भी समझने तथा अनुसन्धान करने के क्षेत्र में उनको एक नई दिशा दी । भारत से लौटने के बाद १८७६ में वे म्यूनस्टर विश्वविद्यालय में भारतीय साहित्य के प्राचार्य बने । १८८५ में समुद्री किनारे पर बसे उत्तरी जर्मनी के कील शहर में वे आचार्य (प्रोफेसर ) बने । १८८६ में वे अपने जन्म स्थल कलोन वापिस लौट आये । १९१३-१४ में जैकोबी पुनः भारत आये । कलकत्ता विश्व विद्यालय ने उन्हें काव्य-शास्त्र पर व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया एवं डाक्टरेट को मानद उपाधि प्रदान की । अपनी द्वितीय भारत यात्रा के दौरान जेकोबी ने अपभ्रंश की दो कृतियों की महत्वपूर्ण खोज की। इससे पूर्व अपभ्रंश का ज्ञान व्याकरणाचार्यों के उद्धरणों से ही होता था । " भविस्सदत्त कहा" तथा " सनतकुमारचरितम् " इन दोनों कृतियों का १९९८ तथा १९२१ में प्रकाशन किया । जैकोबी १६२२ में विश्व विद्यालय की सेवाओं से निवृत्त हुए परन्तु इसके बाद भी अपने जीवन के अन्तिम चरण १९३७ तक वे अपने अनुसन्धान में लगे रहे । जेकोबी ने कई जैन कृतियों का प्रकाशन तथा उनका अनुवाद जर्मन भाषा में किया । १. २. s ४. ५. ६. ७. ८. ६. इनमें से उल्लेखनीय जैन कृतियाँ निम्न हैं: १ - दो जैन स्तोत्र' २ - भद्रबाहु का कल्पसूत्र भूमिका टिप्पणी तथा प्राकृत संस्कृत शब्दावलि सहित प्रकाशित ३– कालकाचार्य कथानकम् + ४ - श्वेताम्बर जैनों का आर्य रंग सुत्त' (आचारांग ) ५ - हेमचन्द्राचार्य की स्थविरावली " ६ – कल्पसूत्र का अनुवाद' ७ – उत्तराध्ययन सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र ८ - उपमिति भवप्रपञ्च कथा ' ९ - विमलसूरि का पउमचरिय "Proceedings of the Bavarian Academy" में १६१८ तथा १६२१ में प्रकाशित । १८७६ में "Indische Studien" में प्रकाशित । लाइपत्सि में १८७६ में प्रकाशित । Journal of the German Oriental Society (ZDMG ) में १८८० में प्रकाशित । Pali Text Society द्वारा लन्दन से १८८२ में प्रकाशित । Bibliotheka Indica में १८८३ में प्रथम प्रकाशित तथा १६३२ में पुनः प्रकाशित । "Sacred Books of the East " १८८४ में प्रकाशित । इसी में उत्तराध्ययन सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र भी १८६५ में प्रकाशित । १९०१ से १४ तक Bibliotheka Indica में प्रकाशित । १९१४ में प्रकाशित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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