Book Title: Germany ke Jain Manishi Dr Harman Jacobi
Author(s): Pavan Surana
Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जर्मनी के जैन मनीषी : जैन दर्शन दिवाकर हेरमान याकोबी (जेकोबी) -डॉ० पवन सुराणा [यूरोपीय भाषाओं के अध्ययन-अनुसन्धान में निरत विदुषी लेखिका तथा प्राध्यापिका अध्यक्षा-यूरोपीय भाषा-विभाग, राज. वि. वि. जयपुर जैन दर्शन एवं साहित्य के गण्यमान जर्मन विद्वानों वेबर, शूब्रिग, ब्यूलर, ग्लासेनाप, आर्लसडोर्फ रोथ तथा ब्रन आदि के नामों के साथ प्रतिभा के धनी हेरमान जेकोबी का नाम प्रमुख रूप से आता है। भारतीय दर्शन एवं साहित्य के विविध पक्षों का अध्ययन करने वाले इस जर्मन विद्वान ने जैन दर्शन एवं साहित्य का गूढ़ अध्ययन कर अपनी कृतियों से इस क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाया। लोक-कथाओं एवं जर्मन परम्पराओं से जुड़ी प्रसिद्ध राईन नदी के दोनों किनारों पर बसे कलोन शहर में १ फरवरी १८५० में जेकोबी का जन्म हुआ। स्कूल की शिक्षा उन्होंने कलोन में प्राप्त की । बलिन में उन्होंने गणित का अध्ययन प्रारम्भ किया। परन्तु दर्शन, साहित्य एवं भाषा के प्रेमी जेकोबी को गणित का अध्ययन इतना रुचिकर न लगा । उन्होंने गणित को छोड़कर संस्कृत तथा तुलनात्मक भाषा-विज्ञान का अध्ययन प्रारम्भ किया । १८७२ में बोन विश्व-विद्यालय से उन्होंने डाक्टरेट को उपाधि प्राप्त की। बोन विश्वविद्यालय को १८१८ में ही भारतीय विद्या का केन्द्र होने का श्रेय प्राप्त था। अपने अध्ययन के बाद वे एक वर्ष तक इंगलैण्ड में रहे । १८७३-७४ में जेकोबी ने भारत की यात्रा की। अपने अध्ययन के लिए हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त करने के लिए राजस्थान, गुजरात आदि की यात्रा करने वाले प्रसिद्ध जर्मन विद्वान जार्ज ब्यूलर के साथ यात्रा करने का जेकोबी को सुअवसर मिला। इनको जैसलमेर की प्राचीन भारतीय विद्या के जर्मन विद्वान जार्ज ब्युलर (१८३७-१८९८) ने अपने जीवन का आधे से अधिक काल भारत में ही व्यतीत किया । कई जैन मुनियों, संस्थानों तथा विद्वान श्रावकों के सम्पर्क में आये । बम्बई के एलफिन्स्टन कालेज में प्रोफेसर रहे । कई कट्टर भारतीय शास्त्री अपने हस्तलिखित पवित्र शास्त्रों को एक विदेशी को नहीं दिखाना चाहते थे । परन्तु ब्युलर के संस्कृत भाषा बोलने के अद्भुत सामर्थ्य ने कटटर भारतीय धर्म शास्त्रियों के हदय को द्रवित किया तथा उन्होंने अपने अमल्य शास्त्र बिना हिचक के जेकोबो को दिखाये। ( ६२ ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड ४ : धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-चिन्तन ६३ जैन हस्तलिपियों आदि को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । यह यात्रा नवयुवक जेकोबी की दिशा निर्धारक बनी | राजस्थान आदि के विभिन्न प्राचीन जैन संस्थानों, जैन साधु-सन्तों एवं विद्वानों से व्यक्तिगत परिचय एवं चर्चा ने जैन धर्म तथा दर्शन को विदेशी होते हुए भी समझने तथा अनुसन्धान करने के क्षेत्र में उनको एक नई दिशा दी । भारत से लौटने के बाद १८७६ में वे म्यूनस्टर विश्वविद्यालय में भारतीय साहित्य के प्राचार्य बने । १८८५ में समुद्री किनारे पर बसे उत्तरी जर्मनी के कील शहर में वे आचार्य (प्रोफेसर ) बने । १८८६ में वे अपने जन्म स्थल कलोन वापिस लौट आये । १९१३-१४ में जैकोबी पुनः भारत आये । कलकत्ता विश्व विद्यालय ने उन्हें काव्य-शास्त्र पर व्याख्यान देने के लिए आमन्त्रित किया एवं डाक्टरेट को मानद उपाधि प्रदान की । अपनी द्वितीय भारत यात्रा के दौरान जेकोबी ने अपभ्रंश की दो कृतियों की महत्वपूर्ण खोज की। इससे पूर्व अपभ्रंश का ज्ञान व्याकरणाचार्यों के उद्धरणों से ही होता था । " भविस्सदत्त कहा" तथा " सनतकुमारचरितम् " इन दोनों कृतियों का १९९८ तथा १९२१ में प्रकाशन किया । जैकोबी १६२२ में विश्व विद्यालय की सेवाओं से निवृत्त हुए परन्तु इसके बाद भी अपने जीवन के अन्तिम चरण १९३७ तक वे अपने अनुसन्धान में लगे रहे । जेकोबी ने कई जैन कृतियों का प्रकाशन तथा उनका अनुवाद जर्मन भाषा में किया । १. २. s ४. ५. ६. ७. ८. ६. इनमें से उल्लेखनीय जैन कृतियाँ निम्न हैं: १ - दो जैन स्तोत्र' २ - भद्रबाहु का कल्पसूत्र भूमिका टिप्पणी तथा प्राकृत संस्कृत शब्दावलि सहित प्रकाशित ३– कालकाचार्य कथानकम् + ४ - श्वेताम्बर जैनों का आर्य रंग सुत्त' (आचारांग ) ५ - हेमचन्द्राचार्य की स्थविरावली " ६ – कल्पसूत्र का अनुवाद' ७ – उत्तराध्ययन सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र ८ - उपमिति भवप्रपञ्च कथा ' ९ - विमलसूरि का पउमचरिय "Proceedings of the Bavarian Academy" में १६१८ तथा १६२१ में प्रकाशित । १८७६ में "Indische Studien" में प्रकाशित । लाइपत्सि में १८७६ में प्रकाशित । Journal of the German Oriental Society (ZDMG ) में १८८० में प्रकाशित । Pali Text Society द्वारा लन्दन से १८८२ में प्रकाशित । Bibliotheka Indica में १८८३ में प्रथम प्रकाशित तथा १६३२ में पुनः प्रकाशित । "Sacred Books of the East " १८८४ में प्रकाशित । इसी में उत्तराध्ययन सूत्र तथा सूत्रकृतांग सूत्र भी १८६५ में प्रकाशित । १९०१ से १४ तक Bibliotheka Indica में प्रकाशित । १९१४ में प्रकाशित । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर्मनी के जैन मनीषी : डॉ० पवन सुराणा १०-भविस्सदत्त कहा जैन कृतियों के सम्पादन एवं अनुवाद के अलावा जेकोबी ने कई अनुसन्धान पत्र जैन धर्म तथा दर्शन पर लिखे / अपने गुरु वेबर के साथ ही जेकोबी का नाम भी जैन साहित्य के अग्रणी विद्वानों में लिया जाता है / जेकोबी ने जैन साहित्य के अलावा गणित तथा विज्ञान आदि अन्य क्षेत्रों में भी अनुसंधान किया। प्राकृत ग्रन्थों के प्रकाशन ने उनको प्राकृत व्याकरण लिखने को भी प्रेरित किया। जेकोबी ने आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक का अनुवाद किया। अपने पेपर भारतीय तर्कशास्त्र में उन्होंने तार्किक ढंग से अनुमान के विचार को स्पष्ट किया / सामान्य पाठक के लिए उन्होंने “पूर्व का प्रकाश" (Light of Orient) नामक पुस्तक की रचना की। __ जेकोबी के सम्मान में उनकी ७५वीं वर्षगांठ पर किरफेल द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ में जेकोबी की सभी कृतियों तथा अनुसन्धान पत्रों का उल्लेख है। जेकोबी विदेशी विद्वानों में प्रथम विद्वान थे जिन्होंने प्रमाणित किया कि न केवल महावीर बल्कि पार्श्वनाथ भी ऐतिहासिक पुरुष थे तथा जैन धर्म, बौद्ध धर्म से विकसित धर्म न होकर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है / जैन साहित्य पर किए अपने उल्लेखनीय अनुसन्धान के कारण जैन समाज ने उनको “जैन दर्शन दिवाकर" की उपाधि से विभूषित किया। पैसा आवश्यक है आवश्यक कार्यों की पूर्ति के लिए, न कि अनावश्यक रूप से पेटियों में संग्रह के लिए। पेट भरने योग्य पैसा हम न्याय से अजित कर सकते हैं। पेटियों को भरने के लिए तो हमें अन्याय करना ही होगा / न मालूम उस संगृहीत धन में कितने गरीबों की आहे व हाय-हाय लगी हुई होंगी। वह तो एक प्रकार से खून से सना धन है / उस धन से क्या कभी कल्याण होने वाला है ? आज खूब शिकायतें आती हैं कि हमारा मत; मन्दिर में नहीं लगता / हमारा मन सामायिक में नहीं लगता / हमारा मन ध्यान में नहीं लगता लगता क्यों नहीं ? इसका कारण कभी जानना चाहते हैं ? अगर जाना है तो उन कारणों को दूर करने का प्रयत्न करो / ख्याल रहे, "जैसा अन्न, वैसा मन" अन्न शुद्ध नहीं होगा तब तक मन कैसे शुद्ध होगा? मन की शुद्धि के लिए शुद्ध अन्न की नितान्त आवश्यकता है। पेट में अनाज तो अशुद्ध पहुँचे और हम सामायिक करना चाहें, पूजा करना चाहें तो कभी नहीं होगा। -आचार्य श्री जिनकान्तिसागर सूरि ('अमर भये, न मरेगे' पुस्तक से)