Book Title: Gandharwad Kavyam
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandiram

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Page 11
________________ प्रकट किया। ये वेदज्ञ पण्डित पाश्चर्य-विभूत हो गए। प्रभु ने इनकी शंकाओं का समाधान करते हए कहा कि 'वेद-ऋचाओं का सही अर्थ नहीं जानने के कारण ही ये शंकाएँ उत्पन्न हुई हैं। 'संशयात्मा-विनश्यति'-वेदज्ञ पण्डितों को प्रथम बार यह ज्ञात हुआ। उनकी गर्व-गठरी नीचे गिर गई और वे हलके-फुलके बिस्मित होकर करुणासागर प्रभु के चरण-कमलों में श्रद्धावनत हुए। ये सभी भगवान महावीर के शिष्य हुए। श्रमण भगवान महावीर के ये ग्यारह गणधर द्वादशांगी और चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता हुए तथा समस्त गणिपिटक के धारक हुए। इस सुप्रसिद्ध आख्यान को जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी महाराज ने मनोवैज्ञानिक शैली में आलेखित किया है। 'श्री गणधरवाद काव्यम्' में आत्मा, पुण्य-पाप, कर्म-सिद्धांत स्वर्ग, नरक, मोक्षादि दार्शनिक विषय हैं जिनको श्रीमद् जैनाचार्य ने प्रांजल और सरल भाषा में निरूपित किया है। 'श्री गणधर काव्यम्' के विभाग : पूज्यश्री ने इस ग्रन्थ की रचना इस प्रकार की है कि इसका विद्वद्वन्द और सामान्यजन समान रूप से रसास्वादन कर सकते हैं। ये विभाग क्रमशः हैंसंस्कृत-पद्य, संस्कृत गद्यानुवाद तथा हिन्दी-व्याख्या। ये तीनों विभाग-गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम तीर्थराज प्रयाग के समान पवित्र हैं जो जनमानस में सद्भाव प्रस्फुटित करते हैं। इस 'काव्यम्' का रसास्वादन करने पर काव्य-विषयक यह उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है : 'काव्यं सदृष्टादृष्टार्थप्रीतिकोतिहेतुत्वात् ।' -प्राचार्य वामन : काव्यालंकार १/१/५ . : छह :

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